Friday, March 31, 2017

बोध

लौटते वक्त उसका चेहरा उदास नही था
लौटते वक्त उसके पास कहने के लिए
बहुत कुछ था
लौटते वक़्त उसके पास वक्त का अनुमान नही था
लौटते वक्त उसके पास एक सीधी पगडंडी थी
जिसके रास्ते में कई चौराहे थे

लौटते वक्त मंजिल सामने थी या पीछे
यह बता पाना जरा मुश्किल था
लौटते वक्त आसमान थोड़ा टेढ़ा था
और धरती थोड़ी चकोर
लौटते वक्त हवा कानों के नीचे से बह रही थी
हवा की छुअन में कोई नूतनता न थी

लौटते वक्त उसने घड़ी को देखा
उसे लगा देर हो गई लौटने में
लौटते वक्त घड़ी को देखना
बेहद नीरस घटना थी
इसलिए नही कि देर हो गई थी
बल्कि इसलिए कि
लौटते वक्त उसे समय का बोध हो गया था।

©डॉ.अजित

Monday, March 27, 2017

गाँव

कहीं दूर हमारी स्मृतियों का
एक गाँव है
जहां थोड़ी धूप थोड़ी छाँव है
एक पगडण्डी उस तरफ जाती है
जहां रास्ता खत्म होता है
और मंजिल नजर आती है

ये गाँव इतनी दूर है
कि हम पहुँच जाते है पल भर में
ये गाँव इतना नजदीक है
देख नही पाते फिर भी उम्र भर में

स्मृतियों के गाँव में
बेवकूफियों का एक टीला है
प्यार में पल पल मरते-जीते
अहसासों का भी एक कबीला है

हम जब खुद से खफा होते है
चाहे अनचाहे बस यहां होते है
दर दर भटकते थक जाते
जब मन के पाँव
किसी आंगन में यहीं मिल पाती
फिर ठंडी छाँव

देस-बिदेस रहे कहीं भी
छूटे चाहे मन की मीत
यही वो गाँव है
छूटे न जिससे कभी प्रीत

स्मृतियों के गाँव के अनगिनत किस्से है
मिले बिछड़े लोगो के भी अपने हिस्से है

पुनर्पाठ:

स्मृतियों का गाँव अजनबी आबादी से भी आबाद हो सकता है और परिचय के संसार के बाद की वीरानियाँ भी यहां बची रह सकती है।ये गाँव हम सब के अंदर बसता है मन के भूगोल के हिसाब से इसका मानचित्र तय करना जरा मुश्किल काम है। इस गाँव जाने का रास्ता हम भी नही जानते कोई हाथ पकड़ कर ले जाता है फिर लौटना हमें खुद होता है,कभी मुस्कुराते हुए तो कभी उदास होते हुए।

©डॉ.अजित

भूलना

मुझे भूलने की कोशिश में
पहले उसने संपर्क कम किया
फिर खुद को मजबूत किया
और बाद में खींच दी एक रेखा
जिसके आर पार
नही देख सकते थे हम
एक दूसरे की शक्ल

सम्बन्धो की कर्क रेखा पर
कोई बाड़ ऐसी न थी
जिससे रोका जा सकता हो
यादों की पुरवाई को
बस यही एकमात्र
तकलीफदेह बात थी

मुझे भूलना उसने
एक चुनौती की तरह लिया
और भूल गई जिद करके
वो जिद की इतनी पक्की है
नही करेगी कभी याद भूलकर भी
ये बात पता है मुझे

मैं याद करता हूँ उसे तो
इतनी अच्छी बातें याद आती है
उदासी में भी मुस्कुरा पड़ता हूँ
तल्खियां सब लगने लगती है हास्यास्पद

वो मुझे भूल गई है हमेशा के लिए
ऐसा भी नही है
हमेशा के लिए कोई
किसी को नही भूल पाता है
बस आजकल वो याद नही करती मुझे

जब याद आती है मुझे
उसके भूलने को कर लेता हूँ याद
फिर भूल जाता हूँ
खुद का वजूद
फिर न उसकी याद आती है
न खुद की

भूलना अतीत का बुद्धिवादी अनुवाद है
जिसका कभी पाठ नही होता है
जिल्द चढ़ाकर रख दिया जाता है जिसे
रिश्तों के अजयाबघर में।

©डॉ.अजित

Friday, March 24, 2017

सुविधा

हंसते हुए उसकी आँखे मिच जाती थी
रोते हुए उसके चेहरे पर रोष नही होता था

बोलते हुए वो बातों के अरण्य में भटक जाती थी
नाराज़गी में वो चुप हो जाती थी
नही चलता था पता कि कहां है वह

पुकारना होता था फिर उसे
अपनी पूरी गहराई के साथ

चाय पीते वक्त उसे एक पैर हिलाने की आदत थी
सटकर बैठना उसे नही था कोई ख़ास पसन्द
उसके हाथ में कलम होती जब
चश्मा चढ़ा लेती थी वो बालों के ऊपर

बहस में हो जाती वो थोड़ी आक्रमक
कविता सुनकर होती थी उसकी आंखें नम
चिढ़कर वो नही मारती थी कभी व्यंग्य
ये काम ख़ुशी के लिए रखा था उसने

उसकी बातों मे बसती थी बासी रोटी की महक
उसकी योजनाएं खट्टी मिट्ठी चटनी सरीखी थी
उसके अनुमान होते थे प्रायः सत्य के निकट
वो जान लेती थी भूख और प्यास का ठीक ठीक अनुपात

ये उसकी कुछ आदतें है
जो याद है मुझे अभी तक
जो भूल गया वो एक ख्याल था
जिसमें थोड़ा रंज थोड़ा मलाल था

उसकी बातें न खत्म होने वाली है
उन्हें इस कविता की तरह यह सुविधा नही
कि खत्म हो जाए एकदम से।

©डॉ.अजित

Friday, March 17, 2017

अनजान

समन्दर से नदी पूछती है
तुम्हारे तल पर रहती है क्या
तुम्हारी प्रेमिका?

समन्दर कहता है
मैं सतह के अधीन हूँ
नही देख पाता
तल पर कौन रहता है

नदी विश्वास कर लेती है
इस बात पर
और देखना शुरू कर देती है अपना तल

नदी के किनारे पर कौन रहता है
नही जान पाती नदी फिर

नदी का किनारा
समन्दर को नही जानता
मगर फिर भी रहता नाराज़ उससे

समन्दर का तल नदी की प्रतिक्षा करता है
वो नही पहुँच पाती वहां तक

दोनों अपने अनुमानों के सहारे मिलते है
और खो जाते है एकदिन

जानकर अनजान रह जाना
इसी को कहा जा सकता शायद
समन्दर और नदी की ये बात
जो जानता है
वो नही बताता दोनों को
लापरवाही या चालाकी
इसी को कहा जा सकता है शायद।

©डॉ.अजित

Sunday, March 12, 2017

सच झूठ

उसने पूछा
एक सच्चे कम्युनिस्ट का नाम बताओ
एक सच्चे फेमिनिस्ट का नाम बताओ
मैंने कहा
एक सच्चे प्रेमी का नाम बताऊं?
उसने कहा
नही मुझे अपोरचुनिस्ट का नाम नही जानना
क्या प्रेमी अवसरवादी होता है
मैंने प्रतिवाद किया
अवसरवादी तो पूरा कह नही सकती मगर
प्रेमी सच्चा प्रतीतवादी होता है
वो वही सब प्रतीत करवा देता है
जो कभी न रहा हो।

***
क्या तुम फेमिनिस्ट हो
उसने पूछा एकदिन
नही मैं वाक्यों के मध्य अटका ट्विस्ट हूँ
तुम उपयोग कर सकती है
जिसे अपने हिसाब से।

***
तुम्हारी क्या आइडियोलॉजी है?
लेफ्ट,राइट,सेंटर या न्यूट्रल हो
मैं वृत्त की तरह गोल हूँ
जहां से चलोगी वही पर
लौट आओगी एकदिन तुम
तुम इतना सावधान क्यों हो?
नही मैं तो लापरवाह मानता हूँ खुद को
मानते हो मगर हो नही
तुम्हारे हिसाब से क्या हूँ मै?
हिसाब तो रखा नही कभी
मगर पुरूष होने के बावजूद मासूम हो
मासूमियत ही तुम्हारी आइडियोलॉजी है।
***

क्या सुन रही हो आजकल
मैने यूं ही पूछ लिया एकदिन
जगजीत सिंह को
मुझसे बिछड़कर खुश रहते हो मेरी तरह तुम भी झूठे हो...
बिछड़ कर कौन खुश रहता है,मैंने पूछा
वही जो कभी मिले नही हो
और जो मिले हो कभी?
वो झूठ बोलकर खुश रहते है
ख़ुशी यानि झूठ की मांग करती है
मैंने बात बदलते हुए कहा
ऐसा भी नही है, दरअसल
झूठ बोलना सच का हिस्सा होता है कभी कभी
अपना अपना सच
अक्सर अकेले में झूठ बोलता है।

©डॉ.अजित

उत्सव

तुम्हारे अंदर उत्सव को लेकर
कोई उल्लास,उत्साह नही देखा कभी
कितने बोर आदमी हो तुम
जीवन के हर उत्सव को खारिज़ करने के
दार्शनिक तर्क है तुम्हारे पास
दरअसल वो सब भोथरे पलायन है तुम्हारे
तुम खुद से भाग रहे हो
इसलिए चाहते हो एकांत
भीड़ शोर हंसी में तुम्हें खो जाने का भय है
पिछली मुलाक़ात पर
ये सब बातें उसने लगभग एक साथ कही
मैं एक एक का जवाब देना चाहता था
मगर वो इतने प्रवाह में थी उसे सुनना नही था
वो दिन उसके कहने का दिन था
और मेरे सुनने का
जब मैंने अपनी सफाई में कोई दलील न दी
उसे लगा मैं सहमत हूँ उसकी स्थापनाओं से
वो चाहती थी कि उसको गलत साबित करूँ
बहस में नही जीवन में
मैंने कहा मौलिकता की अपनी एक स्वतंत्र यात्रा है
कुछ भी होना या न होना क्षणिक नही
शायद हमारा खुद का चयन भी नही
मनुष्य का हस्तक्षेप एक भरम है
उसका संस्करण निर्धारित होता अप्रत्यक्ष से
बेहद अरुचि से उसने मेरी बातें सुनी और कहा
इतनी भारी भारी बातें मेरी समझ से परे है
शायद तुम जीना भूल गए हो
जीवन बिखरा होता है छोटी छोटी खुशियों में
जिसे खुद ही तलाशना होता है
उम्मीद है एकदिन तुम सीख लोगे तलाशना
बस मेरे खो जाने से पहले तलाश लेना
मैं चाहती हूँ तुम्हारे जीवन में बचा रहे उत्सव
हर हाल में
मेरे साथ भी,मेरे बाद भी।

©डॉ.अजित

Friday, March 3, 2017

खालीपन

मुद्दत तक इतना खाली रहा हूँ मै
यदि कहूँ आज बिजी हूँ थोड़ा
सुनने वाले को लगता है
ये नया झूठ है मेरा
और बेवजह का भाव खा रहा हूँ

मैं सदा उपलब्ध रहा हूँ
फोन पर
असल में
सपने में
चिट्ठी पत्री में

मेरी सदा उपलब्धता
एक क्षेपक की तरह उपस्थित रही जीवन में

इतना खाली और औसत जीवन था मेरा
मेरे पास कई-कई साल नए लतीफे न होते
इतना कम घटना प्रधान  जीवन था मेरा
कि मै इतना ही बता सकता था रोचकता से
फलां दिन इतनी देर से बस मिली थी मुझे

निठल्लेपन के बर्तन में पानी को
शराब समझ कर पीता रहा हूँ मै
मेरी बातों में जो लचक बची है
ये उन्ही दिनों की देन है

मेरे पास कोई किस्सा ऐसा नही
जिस पर किसी को रश्क हो सके
मेरे पास अधिकतम बातें
बेवकूफी भरे सपनें देखने की हो सकती है
सपनों का पीछा करना मुझे कभी नही आया
मैं बदलता रहा हूँ सपनें
देशकाल और परिस्थिति के हिसाब से
जिसके लिए
सपनो ने कभी माफ नही किया मुझे

फोन पर कुछ ही देर में
दो वाक्य जकड़ लेते है
मेरी ज़बान
और बताओ...
सब बढ़िया....
या फिर खिसियाकर हंसने लगता हूँ
ताकि हंसी के शोर बढ़ जाए बात आगे

मैने बनाया खुद को आग्रह के समक्ष कमज़ोर
मीलों की यात्राएं केवल मेल मिलाप के लिए
मतलब की बात पर सिल गए होंठ
मैसेज भेजकर मांगे पैसे उधार
और भी किस्म किस्म की मदद

दोस्तों में रहा चिट्ठीबाज़
जताई सारी नाराज़गियां
खतों के जरिए

दरअसल,
मैं उपलब्ध था
मैं उपस्थित था
मैं तत्पर था
मैं कतार में था
मैं विचार में था
मैं व्यवहार में था

इन सब का एक अर्थ यह भी था
मैं अपने खालीपन के साथ
अपने संपर्कों के प्यार में था

जिसे कुछ समझ पाएं
और कुछ नही
जो नही समझ पाएं
उनसे कोई शिकायत नही मुझे
उन्होंने मुझे चुना या मैंने उन्हें
इनसे ज्यादा जरूरी यह था
मुझे वक्त ने चुना था
सुनने के लिए

सुनाने के विषय सदा से कम रहे मेरे पास
इस बात का खेद है मुझे
मेरी अनुपस्थिति में
शायद ही किसी को याद आता हो
मेरा कोई किस्सा

मैं लोगो के जीवन में शामिल रहा
एक कविता तरह
इसलिए भी लोगो के जीवन में
कहानी की तरह याद नही
कविता की तरह विस्मृत रहा हूँ मै।

©डॉ.अजित

Thursday, March 2, 2017

दौर

ये एक ऐसा दौर है
जब आप दो जमा दो कहते हुए भी मारे जाएंगे
और दो जमा दो पांच कहते हुए भी
उल्लास के शोर में हिंसा छिपी है
और देशभक्ति अब बेहद लोकप्रिय चीज़ है
इतनी लोकप्रिय कि
आपके चुप्पी भरे डर को भी देश के खिलाफ
समझा जा सकता है

इस दौर में जो
लिख और बोल रहे है
उनके परिजन विश्व के सबसे अशान्त नागरिक है
वो चाहते है कि चुप रहना सीखना चाहिए
चाहिए में फिर भी एक आग्रह हो सकता है
मगर अब चुप रहना सीखना पड़ेगा
इस बात की ध्वनि आदेशात्मक है

पिछले दिनों में
बदल गए है बहुत से व्याकरण
असुविधा अब एक समिधा है
आप कितने ही नास्तिक क्यों न हो
आपका यज्ञ में शामिल होना अनिवार्य है

झूठ बोलने पर अब खेद का प्रावधान नही है
सच बोलने पर सजा तय है
भीड़ है जयकारा है और सब कुछ
सही होने की एक उपकल्पना है

जबकि
इस दौर में सब कुछ सही नही है
इसी दौर में
कवि को लहुलुहान कर देता डीटीसी का कंडक्टर
क्योंकि कवि को था
सार्वजनिक जगह पर मूतने पर ऐतराज़

दरअसल
ये हर ऐतराज़ पर मूतने का दौर है
जिसमे कमजोर आदमी का घायल होना लाज़मी है
देश के पुनर्निमाण में
वैसे ही कमजोर आदमी की जरूरत नही होती

इस दौर में देश मजबूत हो रहा है
और आदमी कमजोर
मगर हमें इस पर कोई खेद इसलिए नही है
हम उम्मीद से भरे लोग है
इतनी उम्मीद से भरे कि
मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ संगठित करते समय
भूल जाते है हर किस्म का डर

इस दौर में घृणा प्रेम से बढ़कर स्वीकृत है
इतनी स्वीकृत कि
बसन्त में पतझड़ पर हम लिख सकते है कविताएं
विलाप में सुन सकते है तान
बलात्कार को सिद्ध कर सकते है प्रतिशोध का साधन

इन बातों में कोई नूतनता नही है
सब जानते है इन्हें
महसूसते सब है अपने आसपास
मगर कोई कहेगा नही
मैं कह रहा हूँ तो एक जोखिम को दे रहा हूँ निमंत्रण
मैं चाहता हूँ मेरे बाद
दस्तावेज़ में दर्ज हो ये दौर
जब आदमी को आदमी पर भरोसा कम है
आदमी का भरोसा चमत्कार का दास है अब

चमत्कार को नमस्कार करना
नही सीख पाया आजतक
तभी लिख कर ये सब
मिटा रहा हूँ अपना डर
दरअसल
ये भयभीत होने का दौर है
जिसके लिए लिखनी पड़ी है
मुझे इतनी लम्बी चौड़ी भूमिका।

©डॉ.अजित

निराश

प्रार्थनाओं से निराश व्यक्ति
जब करता है प्रेम
वो सबसे पहले खारिज़ करता है
प्रेम के दिव्य संस्करण को

ईश्वर या कोई भी ईश्वरीय चीज़
भरती है उसके अंदर एक गहरी खीझ
मनुष्य के शिल्प में नही देखना चाहता वो
चार ऐसे हाथ जो एक भी काम न आए बुरे वक्त पर

वो नही पड़ना चाहता
प्रेम के लौकिक और अलौकिक संस्करण में
वो महसूसता है कामनाओं का ताप
और विरह के जरिए मुक्ति एक साथ
वो तत्कालिकता का होता है ऐसे अभ्यस्त कि
नही बाँध पाता खुद को किसी चमत्कार की आशा में

निराश वैसे एक नकारात्मक शब्द समझा जाता है
मगर प्रार्थनाओं से निराश व्यक्ति
जब करता है प्रेम
वो मनुष्यता को देता है सबसे गहरी उम्मीद
इसी उम्मीद के सहारे
दिख और मिल जाते है ऐसे प्रेमी युगल

जिन्हें देख बरबस मुंह से निकल सकता है
'ईश्वर ने ऐसा कैसे होने दिया भला'

©डॉ.अजित