प्रार्थनाओं से निराश व्यक्ति
जब करता है प्रेम
वो सबसे पहले खारिज़ करता है
प्रेम के दिव्य संस्करण को
ईश्वर या कोई भी ईश्वरीय चीज़
भरती है उसके अंदर एक गहरी खीझ
मनुष्य के शिल्प में नही देखना चाहता वो
चार ऐसे हाथ जो एक भी काम न आए बुरे वक्त पर
वो नही पड़ना चाहता
प्रेम के लौकिक और अलौकिक संस्करण में
वो महसूसता है कामनाओं का ताप
और विरह के जरिए मुक्ति एक साथ
वो तत्कालिकता का होता है ऐसे अभ्यस्त कि
नही बाँध पाता खुद को किसी चमत्कार की आशा में
निराश वैसे एक नकारात्मक शब्द समझा जाता है
मगर प्रार्थनाओं से निराश व्यक्ति
जब करता है प्रेम
वो मनुष्यता को देता है सबसे गहरी उम्मीद
इसी उम्मीद के सहारे
दिख और मिल जाते है ऐसे प्रेमी युगल
जिन्हें देख बरबस मुंह से निकल सकता है
'ईश्वर ने ऐसा कैसे होने दिया भला'
©डॉ.अजित
जब करता है प्रेम
वो सबसे पहले खारिज़ करता है
प्रेम के दिव्य संस्करण को
ईश्वर या कोई भी ईश्वरीय चीज़
भरती है उसके अंदर एक गहरी खीझ
मनुष्य के शिल्प में नही देखना चाहता वो
चार ऐसे हाथ जो एक भी काम न आए बुरे वक्त पर
वो नही पड़ना चाहता
प्रेम के लौकिक और अलौकिक संस्करण में
वो महसूसता है कामनाओं का ताप
और विरह के जरिए मुक्ति एक साथ
वो तत्कालिकता का होता है ऐसे अभ्यस्त कि
नही बाँध पाता खुद को किसी चमत्कार की आशा में
निराश वैसे एक नकारात्मक शब्द समझा जाता है
मगर प्रार्थनाओं से निराश व्यक्ति
जब करता है प्रेम
वो मनुष्यता को देता है सबसे गहरी उम्मीद
इसी उम्मीद के सहारे
दिख और मिल जाते है ऐसे प्रेमी युगल
जिन्हें देख बरबस मुंह से निकल सकता है
'ईश्वर ने ऐसा कैसे होने दिया भला'
©डॉ.अजित
1 comment:
बहुत सुन्दर।
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