Friday, March 24, 2017

सुविधा

हंसते हुए उसकी आँखे मिच जाती थी
रोते हुए उसके चेहरे पर रोष नही होता था

बोलते हुए वो बातों के अरण्य में भटक जाती थी
नाराज़गी में वो चुप हो जाती थी
नही चलता था पता कि कहां है वह

पुकारना होता था फिर उसे
अपनी पूरी गहराई के साथ

चाय पीते वक्त उसे एक पैर हिलाने की आदत थी
सटकर बैठना उसे नही था कोई ख़ास पसन्द
उसके हाथ में कलम होती जब
चश्मा चढ़ा लेती थी वो बालों के ऊपर

बहस में हो जाती वो थोड़ी आक्रमक
कविता सुनकर होती थी उसकी आंखें नम
चिढ़कर वो नही मारती थी कभी व्यंग्य
ये काम ख़ुशी के लिए रखा था उसने

उसकी बातों मे बसती थी बासी रोटी की महक
उसकी योजनाएं खट्टी मिट्ठी चटनी सरीखी थी
उसके अनुमान होते थे प्रायः सत्य के निकट
वो जान लेती थी भूख और प्यास का ठीक ठीक अनुपात

ये उसकी कुछ आदतें है
जो याद है मुझे अभी तक
जो भूल गया वो एक ख्याल था
जिसमें थोड़ा रंज थोड़ा मलाल था

उसकी बातें न खत्म होने वाली है
उन्हें इस कविता की तरह यह सुविधा नही
कि खत्म हो जाए एकदम से।

©डॉ.अजित