Wednesday, January 27, 2016

कमी

आधी अधूरी बातों की
एक छोटी सी फेहरिस्त है मेरे पास
इतनी छोटी कि
चाय खत्म करने से पहले
तुम पढ़ लोगी

आधे अधूरे अहसासों के
कुछ छोटे छोटे वजीफे है मेरे पास
इतने छोटे के
तुम्हारी आधी मुस्कान में
खर्च हो जाएंगे

कुछ आधे अधूरे खत है
कुछ के पते अधूरे है
कुछ के हाशिए पर
मैं उदास बैठा हूँ
तुम पढ़ोगी तो अच्छा नही लगेगा
इसलिए कभी पोस्ट नही किए

आधे अधूरे ख्यालों की एक शॉल है मेरे पास
सर्द यादों के मौसम में काम आती है जो
कतरा कतरा खुद को निचोड़ता हूँ
उदासी के लम्हों में
तुम्हारी हंसी को ओढ़ता हूँ

एक आधी अधूरी कहानी है मेरे पास
जिसकी शक्ल तुमसें मिलती है
सब कुछ आधा अधूरा ही है मेरे पास
इस बात का कोई अफ़सोस नही है

हां, अफ़सोस इस बात का है
ये अधूरापन अब आदत में शामिल हो गया है
अब कमी नही खलती तुम्हारी।

© डॉ.अजित

Tuesday, January 26, 2016

बतकही

एकदिन मैंने कहा
ऐसा तो नही हो सकता कि
मुझमें सबकुछ बढ़िया ही बढ़िया हो
निसन्देह बहुत कुछ खराब भी होगा
मुझमें सबसे खराब क्या है
सोचकर बताओं जरा
उसनें कहा इसमें सोचना कैसा
तुम्हारी खराबी तो हमेशा से पता है
मैंने कहा क्या है
तुमको सही वक्त पर सही बात कहना नही आता
हमेशा देर कर देते हो
कहने और सुननें में।
***
अचानक एकदिन
मैंने पूछा
सफर जरूरी होता है या मुसाफिर
उसने कहा ये कैसी पहेली
मैंने कहा बताओ तो सही
उसने कहा
दोनों से ज्यादा जरूरी होता है
रास्ता और मंजिल का इन्तजार
इन चारों में अब
खुद को तलाश रहा था मैं।
***
चाय पर बतियातें
एकदिन उसने कहा
चलो एक बात बताओं
हमारे बीच में कितना फांसला है
मैंने कहा
तय नही कर पा रहा हूँ
टेबल,सदी और ग्राम में
उसनें हंसते हुए कहा
कभी करना भी मत
फांसलों की दूरी तय करना
बेवजह थका देता है
और हासिल कुछ नही होता।
***
मैंने एकदिन पूछ लिया
हमारी नजदीकियां कितनी है
अच्छा उस दिन का बदला ले रहे हो
उसनें हंसते हुए कहा
फिर गम्भीर होकर बोली
उतनी जितनी
चाँद और चांदनी में
सूरज और रोशनी में
पानी और नदी में
धड़कन और जिंदगी में।
***
© डॉ.अजित

Monday, January 18, 2016

बातचीत

देह को होना होगा एक दिन
अनावृत्त
समस्त आवरणों से
जैसे मस्तूल से बंधी नाव
को होना होता है अलग
चलनें के लिए जल की तरलता पर
आलिंगन और स्पर्शों की प्रतिलिपियां
जमा करनी होगी
अपनत्व के संग्रहालय में
जब जिस्म का नही होगा कोई मनोविज्ञान
जब मन का नही होगा कोई दर्शन
तब मिलना होगा कुछ तरह कि
न रहें कुछ भी शेष
न विमर्श को न स्पर्श को
थोड़े से अधीर थोड़े से आश्वस्त होकर
मैं तुम्हारे माथे पर और
तुम मेरी पीठ पर लिखोगी
यही एक सयुंक्त बात
मुक्ति यदि कोई अंतिम चीज़ होती तो
इसे हासिल किया जा सकता था।

©डॉ.अजित

Saturday, January 16, 2016

उसकी बातें

लिखने को इतना कुछ था
आसपास
मगर उसने चुना केवल प्रेम
वो डाकिया था
जिसने चिट्ठियां बांटी सही पतों पर।
***
प्रेम ने बदल दी थी उसकी दुनिया
वो अब लिखता था
जेठ की दोपहर में
फागुन के गीत
मौसम ने दिया था उसको शाप
उदास रहने का।
***
उसके पास थे
सब किस्से उधार के
जिन्हें उसका समझा गया
और लगाए गए अनुमान
वो एक अच्छा किस्सागो था
और एक खराब प्रेमी
ये बात केवल उसका एकांत जानता था।
***
उसके पास
कुछ नही था जताने बताने और समझाने के लिए
उसकी स्मृतियां
अल्पकालीन निविदाओं पर आश्रित थी
वो अनुबंधित था
हस्तक्षेप न करने के लिए
इसलिए भी था
उसका हर वादा सरकारी।

© डॉ.अजित

बचना

कल कुछ लोग
इस बात पर हैरान होंगे कि
मैं एक कवि बन सकता था
मगर नही बन सका
मैं एक लोकप्रिय लेखक हो सकता था
मगर नही हो सका
मैं किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर से लेकर कुलपति तक बन सकता था
मगर नही बन सका
मैं एक अच्छा वक्ता बन सकता था
मगर नही बना
सड़क से लेकर संसद तक का सफर तय कर सकता था
मगर नही चला एक भी कोस
रसूखों के जरिए लोक सेवा आयोग से लेकर
अन्य उच्च आयोगों का सदस्य बन सकता था
मगर नही बन सका
कुछ लोग इस बात पर खीझ रहे होंगे
मुझे न खुद की
उपयोगिता का पता था
न अपने आसपास के सम्पर्को की
मनुष्य को उपयोग करने की दृष्टि से
मेरा नाम सबसे नीचे लिखा जाएगा
आत्ममुग्धता और प्रंशसा की खुराक पर जिन्दा रहने वाले मनुष्यों की एक कोटि
मुझे देख नृविज्ञानी तय करेंगे
जिसे पढ़ाया जाएगा एक खतरे के तौर पर
विभिन्न विश्वविद्यालयों में
लोगबाग नसीहत की शक्ल में सौपेंगे
मेरे किस्से अपने बच्चों और मित्रों को
और कहेंगे
हमेशा बचना ऐसे शख्स से
जो बहुत कुछ कर सकता हो
मगर कुछ नही कर पाया हो
ये बड़ी सच बात है
खुद को सही सलामत बचाए रखने के लिए
बहुत जरूरी होगा
मुझसे बचना
अगर कोई बच पाया तो।

© डॉ.अजित

Tuesday, January 12, 2016

यात्रा

तकरीबन
साल भर हमारी
बोलचाल बन्द रही
छ महीनें हमनें
एक दुसरे की शक्ल नही देखी
तीन महीनें
एक दुसरे से बेखबर रहें
और एक महीना
भूल जाने का नाटक किया
मगर
इस एक साल में एक भी पल ऐसा नही था
जब एक दूसरे को हमनें महूसस न किया हो
तब ये जाना
तमाम शिकायतों और नाराज़गियो के बावजूद
प्रेम मृत नही होता
हां प्रेम स्थगित जरूर हो जाता है
मानवीय कमजोरियों के समक्ष।
***
पिछले हफ्ते
तुम्हारा खत मिला
खत में जगह जगह तुम उदास बैठी मिली
मैने खत को जैसे ही
बायीं जेब रखा
तुम खिल उठी
दरअसल तुम दिल की धड़कनों को
करीब से सुनना चाहती थी
ये काम खत के जरिए
अंजाम दिया मैंने।
***
एकदिन तुमनें कहा
कल ऐसा नही रहेगा
बदल जाएगा सब
छूट जाएगा सब
मैं तुम्हारा हाथ पकड़ तुम्हें
कल की बजाए सीधा परसों में ले गया
जहां साथ चाय पी रहे थे हम
इस बात पर तुम हंस पड़ी
तुम्हारी हंसी में कल खो गया था
खुद ब खुद।
***
आज तुमनें
शिकायत करते हुए कहा
तुम्हारे तलबगार बहुत से लोग है
मैं कहीं नही हूँ
मैंने तुम्हारे कान में
लोग और तुम में फर्क करने का सूत्र बताया
तुम सच में खुश हुई
ये जानकर
मुझे भेद करना आता है
तुम चाहती थी
इतनी चालाकी हमेशा बची रहे मेरे अंदर।
***
अभी अभी तुम्हारा
एसएमएस मिला
'फॉरगेट एंड फोरगिव मी'
सोच रहा हूँ
इस बात पर
तुम्हें चाय पर बुलाऊँ
और फिर बताऊँ
ना मुझे अंग्रेजी आती
ना अनुवाद
और ना वो करना जो तुम कह रही हो।

© डॉ.अजित

Friday, January 8, 2016

चिट्ठी

आज एक चिट्ठी मुझे मिली
ये चिट्ठी तुम्हारे शहर ने लिखी है
शहर वैसे कभी किसी का नही होता
तुम वहां रहती थी
इसलिए मैंने शहर को तुम्हारा कहना शुरू कर दिया
शहर लिखता है
मेरे जाने के बाद उसके पास
उन गलियों ने उलाहनें भेंजे
जहां जहां से मैं अनमना होकर गुजरा था
शहर की धूल से रश्क करती है
शहर की सख्त जमीं
उसे लगता है धूल ने
कम से कम चूम तो लिया था मेरा माथा
मेरे जूतों के निशान
सड़को ने रख लिए है अपने घर
ताकि वो शिनाख्त करने के काम आ सके कभी
शिकायत तो उस चौराहे ने भी की है
जिसका एक रस्ता तुम्हारे घर की तरफ जाता था
मगर मैं उधर जाने की बात तो दूर देखने की भी
हिम्मत न कर सका
शहर कहता है मुझसे
सुनो ! जब जब तुम आए मुझे लगा
इस मतलबी दुनिया में
आज भी जिन्दा है विश्वास
बचा हुआ है बहुत कुछ
विकल्पों और षडयन्त्रों से इतर
मेरी आमद का कोई अर्थ विकसित नही कर पाया शहर
इस बात पर भी वो खुश था
वरना रोज़ भीड़ में देखता है वो
अपने अपने अजनबी
और बेहद औपचारिक किस्म के मेल मिलाप
इस चिट्ठी में तुम्हारा शहर
पेश आता है
एक दोस्त की तरह
जबकि मेरी कोई दुआ सलाम नही हुई थी उससे
उसकी स्मृतियों में
मेरी गंध बस गई है
वो सूँघता है अपना तकिया बिस्तर और कपड़े
ये बात उसी ने मुझे चिट्ठी के जरिए बताई
तुम्हारा शहर मुझे देखता है अपलक
थोड़े विस्मय से
हंसता है मेरे पागलपन पर अकेले में
इस बात का भी जिक्र मिलता है
चिट्ठी में
अंत में वो चाहता है
मेरी कुशल क्षेम
और पूछता है एक ही सवाल
आग्रह और जिज्ञासा के साथ
फिर कब आओगे?

© डॉ.अजित

Monday, January 4, 2016

सीख

कभी कभी मुझे
वो दिखाती आईना
हालांकि मेरा आईना उसकी आँखें थी
वो बोलती अधिकतम कड़वा
जितना बोल सकती थी
उडा देती मेरे अस्तित्व व्यक्तित्व और कृतित्व की धज्जियां
उसकी बातचीत की ध्वनियों में
एक ख़ास किस्म की खीझ होती
उसकी बातें इतनी अपमानजनक लगती कि
बह जाता था मेरा सारा आत्मगौरव
वो देखना चाहती थी
मुझे कुछ प्रतिशत प्रतिबद्ध
और थोड़ा नियोजन से भरा
उसका धैर्य उस वक्त काँप रहा होता
वो नही तय कर पाती
आखिर वजह क्या है
मेरे इतने अस्त व्यस्त होने की
मैं सुनता जाता
सब ताने उलाहनें
यहां तक मेरे अकर्मण्य होंने पर
उसकी खीझ पर भरी टीकाएँ
वो अपनी समस्त वाक् क्षमता से करती
मेरी जड़ता पर अधिकतम् प्रहार
ताकि स्थापित हो सकूं
मैं अपनी कक्षा में उपग्रह की भाँति
और दुनिया को बता सकूं
उसका ठीक ठीक हाल
जिसके लिए उसकी नजर में
सुपात्र था मैं
मैं उस वक्त कोई
प्रतिवाद न करता
स्वीकार करता अपनी कमजोरियां
हर छटे छमाही होता था यह उपक्रम
उसने इस तरह से टोकना न छोड़ा होता तो
आज कुछ और ही होता मैं
इस बात के लिए
एकदिन थैंक्स बोला मैंने
इस बात पर वो हंस पड़ी और बोली
जाओ कविताई करों
एटिकेट्स बाद में सीख लेना।

© डॉ.अजित