Wednesday, November 22, 2017

अकेलेपन की कविताएँ

अकेलेपन की कविताएँ
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मैं इतना अकेला हूँ कि
करवट लेने पर
शरीर का दूसरा हिस्सा
आहत और उपेक्षित महसूस करता है
मेरी मां के अलावा
मेरा बिस्तर जानता है
मेरा ठीक-ठीक बोझ
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एकांत का अर्थ  दुःख नही
अवसाद भी नही
एकांत का अर्थ
जो निकालते है
वो एकांत से नही
अकेलेपन से पीड़ित है.
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अकेला होना
पहले दुःख लगा
फिर त्रासद
बाद में अकेले में
वैसा लगने लगा
जैसा कभी लगता था
प्रेम में.
**
नितांत अकेला
कम रहा हूँ मैं
मेरा साथ रही है
उसकी स्मृतियाँ
जो मेरे बाद
नही रहा
कभी अकेला
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मैं अकेला था
इस कथन में है
व्याकरण दोष
अकेला कोई
कभी अकेला नही होता
उसे अकेला समझा जाता है तब
जब वो कहता है
मैं अकेला हूँ
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कल जब
तुम साथ थी
हम अकेले नही थे
मगर
मैं और तुम थे
दोनों बेहद अकेले.
© डॉ. अजित


Monday, November 13, 2017

अच्छे लोग

अच्छे लोगों से जुड़ी स्मृतियां
बहुत छोटी होती है
जैसे ही वो होते है
अनुपस्थित
धीरे-धीरे
साथ छोड़ जाती है उनकी बातें

अच्छाईयां तो छोड़िए
बमुश्किल याद आता है उनका कोई ऐब
वो हमारे जीवन से
कुछ इस तरह से हो जाते है विलुप्त
जैसे खो जाती है कोई प्रिय चीज़

अच्छाई वैसे तो बहुत व्यक्तिगत विषय है
मगर अच्छे लोग धुल जाते है एकदिन
कपड़े के मैल की तरह
जीवन के उजास के पीछे
छूटे हुए मैल का हाथ होता है
मगर कोई जानता है यह लघु इतिहास

अच्छे लोगों में एक होती है खराबी
वो लौटकर नही मिलते दोबारा
जैसे वो आएं ही थे जाने के लिए
यहां जाने से मृत्यु का आशय मत निकालिएगा

अच्छे लोग कभी मरतें नही है
या हम नही जान पाते उनका मरना
बस अच्छे लोग चलें जाते है
एक दिन चुपचाप
यकायक।

©डॉ. अजित

Saturday, November 11, 2017

रसोई

रसोई से आती
खाने की खुशबू में
शामिल होती है
बहुत सी अनिच्छा से भरी
तैयारियां
चुनाव की दुविधाएं
पसन्द-नापसन्द के
ज्ञात-अज्ञात आग्रह

रसोई के बर्तन जानते है
मन:स्थिति का ठीक-ठीक चित्र
सिंक के किनारे रखा जूना
रोज़ पढ़ता है
स्त्री की भाग्य और हृदय रेखा की लड़ाई

रसोई की नमी जानती है
स्त्री के मन की तरलता का स्तर
रसोई के छोंक का धुआं
रोज़ छोड़ आता अशुभता को
आसमान की देहरी तक
जिसे देख जल उठते है
लोक ऋषियों के हवन कुंड

रसोई में खड़ी स्त्री
करती है यात्रा एक साथ कई कई लोक की
परकाया प्रवेश के लिए सिद्ध स्थान है रसोई
सम्भव है एक चुटकी हल्दी डालते वक्त स्त्री को
याद आ जाएं पिता
और प्याज़ छीलते वक्त याद आ जाए मां

चाय छानते वक्त याद आ जाए
कोई पुराना साथी
या फिर वो बड़बड़ाती रहे सब पर
और भूल जाने की करे कोशिश सबकुछ

रसोई को दूर देखना आसान है
जैसे मैं देख रहा हूँ
लेटा हुआ अपने बिस्तर पर
रसोई में खड़े होना
अंतरिक्ष यान में खड़े होने के बराबर है
जहां सबसे पहले
खोना होता है अपना गुरुत्वाकर्षण

रसोई से जो दुनिया दिखती है
वो घूमती नही है
वो थमी हुई है एक जगह मुद्दत से
इसलिए
स्त्री को नही होता है लेशमात्र भी दृष्टिदोष
वो ठीक ठीक देख पाती है
अपनी और अपनों की
दशा और दिशा एकसाथ।

©डॉ. अजित

Thursday, November 9, 2017

बदलाव

उसने कहा
तुम बदल गए हो कवि
 मैं नही चाहती थी
स्थिर प्यार की तरह
तुम बने रहो एक जैसे हमेशा
इसलिए तुम्हारा बदलना
मुझे खराब नही लगा
एकदिन हम सबको
बदलना ही होता है
मैंने कोई प्रतिक्रया नही दी इस बात पर
इस तरह से पहली बार
बातचीत में शामिल हुआ  
मेरा बदलना.
**
अचानक एकदिन
मेरे कान को छूते हुए उसने कहा
तुम्हारे कान बुद्ध के कान के जैसे है
क्या तुमनें देखे है बुद्ध के कान?
मैंने चुटकी ली
उसने आत्मविश्वास से कहा
हाँ ! तुम्हारे कान देखना
बुद्ध के कान देखना ही है
फिर मैंने कोई सवाल नही किया
इस पर हसंते हुए उसने कहा
केवल कान मिलते है बाकि कुछ नही
अब मौन से बाहर से निकलो
और नई कविता सुनाओं.
**
गहरे अवसाद के पलों में
हम अक्सर हो जाते थे चुप
या हंसने लगते थे जोर-जोर से
हमारी सामान्य बातचीत की स्मृतियाँ
इसलिए भी है कम.
**
उसने पूछा
अच्छा एक बात बताओं
आदमी किसके लिए ज़िंदा रहता है?
मैंने कहा अपनी कायरता के लिए
और किसके लिए मर जाता है
शायद ज़िन्दगी के लिए
उसने स्पष्टता से कहा
तुम्हारें दोनों ही जवाब गलत है
तो सही तुम बता दो, मैंने कहा
आदमी प्यार के लिए ज़िंदा रहता है
और अपने लिए मर जाता है
मैं सहमत नही था
मगर असहमत भी नही था
फिर क्या था?
केवल जानती थी वो.

©डॉ. अजित 

नाराज़गी

कोई किसी को सायास
नाराज़ नही करना चाहता
मनुष्य के पास
इतना समय भी कहाँ
कि योजना बनाकर
किसी को नाराज़ कर सके

नाराजगी एक घटना है
वो घटती रहती है
दुनिया के किसी कोने में
पल-प्रतिपल

अच्छी बात यह है
नाराज़ लोग नही मिलते आपस में
वरना मनुष्य से घृणित
कोई प्राणी नही होता धरती पर

जहां प्यार है वहीं नाराजगी है
यह भावुक स्थापना
हमारी परवरिश का हिस्सा रही है मुद्दत से
मगर नाराज़गी प्यार के कारण नही होती
हर बार

दरअसल
नाराज़ होने की वजहें
होती है इतनी निजी कि
कई दफा हंसी छूट सकती है सुनकर
कई दफा आ सकता है रोना

नाराज़गियां बनती-बिगड़ती रहती है
यह एक अच्छी बात जरूर है
देर तक रुकी नाराज़गी
हमें साबित करती एक कमजोर इंसान

पहले मैं माफी मांगकर
नाराज़ आदमी को मजबूत करता था
अब लगता है यह भी गैर जरूरी
कमजोर रहना यदि किसी का चुनाव है
तो मैं क्या करूँ क्षमा प्रार्थना का अपव्यय?

हो सकता है ये बात सुनकर
आप हो जाएं नाराज़
समझ बैठे मुझे अहंकारी
मगर अब मैं नाराज़ लोगों को
नाराज़ ही रहने देना चाहता हूँ

बतौर मनुष्य यह मेरी एक मदद है
जो शायद समझ आएगी
एक लंबे अंतराल के
बीत जाने के बाद।

©डॉ. अजित

Wednesday, November 8, 2017

चुपचाप

उसके जाने के बाद
मैंने उसके जाने का
कारण नही तलाशा
मैनें उसके जाने को
बस देखा निरन्तरता में
आज भी उसको याद नही करता
बस उसके जाने को देखता हूँ
मन ही मन
वो इतनी खूबसूरती से गई कि
उसके जाने के बाद
मेरा प्यार और बढ़ गया उसके लिए

बिना किसी संकेत और पूर्वाभास के
देखते ही देखते चले जाना सामने से
ठीक वैसा था जैसे भोर तब्दील हो गई हो उजाले में

उसके जाने के बाद
मैंने उसे पुकारा नही
यदि ऐसा करता मैं
हो सकता है वो लौट भी आती
मगर मैं उसके जाने पर हो गया था
इस कदर मुग्ध कि
तय नही कर पाया पुकारने का सही वक्त

मनुष्य जब मनुष्य की जिंदगी से लेता है विदा
वो घटना इतिहास की तरह संदिग्ध हो जाती है
जिसके हो सकते है अलग-अलग पाठ

उसके चले जाने पर
मेरे पास भी है एक अलग पाठ
जिसे पढ़-सुनकर आप
हंस और रो सकते है
अपने अपने हिसाब से

बशर्ते
आपके जीवन से भी
कोई चला गया बड़ा आहिस्ता से
बिन बताए
चुपचाप।

©डॉ. अजित