Friday, April 10, 2015

असंगत

नदी अकेले गीत नही गाती
उसे किनारों तक आना होता है
अपनी चोट सुनाने के लिए
समन्दर की इच्छा
कोई नही पूछता
रोज एक इंच बढ़ जाता है उसका तल
वो सूरज से मांगता है मदद
ताकि रह सके सामान्य
झरनें के साथ
गिरता है उसका अकेलापन
दोनों तलों पर होती है
अलग अलग किस्म की चोट
ये केवल पानी की कहानी नही
ये तरल होने की पीड़ा है
जैसे आंसूओं की यात्रा
छोटी प्रतीत होती है
एक आँख का आंसू दूसरी आँख तक
नही जा पाता है
नाक की दीवार
आंसू की तरलता और वेग को
देखनें नही देती
हर संगत दिखनें वाली वस्तु में छिपी होती है
एक गहरी असंगतता
यदि यह छिपाव नही होता
मनुष्य को बर्दाश्त करना
सबसे मुश्किल काम था।

© डॉ.अजीत

1 comment:

Asha Joglekar said...

हर संगत व्स्तु में छिपी हुी है एक गहरी असंगतता।