Thursday, April 2, 2015

ग़ुस्सा

'गुस्से के सात युग'
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एक दिन
किसी बात से
आहत होकर
अचानक उसनें कहा
'फ्लाई अवे'
मेरे मन की उड़ान
दिशा भटक गई उसके बाद
उससे दूर उड़ना
पक्षी के लिए भी असम्भव था
मैं तो आखिर इंसान था।
***
एकदिन वो
मुझ पर इतनी उखड़ गई
कि मैसेज किया
यू आर नोट माय फ्रेंड
उस दिन मैं
खुद से अजनबी हो गया
जब उसका दोस्त नहीं हूँ मैं
तो फिर किसका क्या हूँ मैं।
***
ऐसा पहली बार हुआ
ना उसनें फोन उठाया
ना एसएमएस का जवाब दिया
ई मेल पढ़ी हो
इसका भी पता नही
उस दिन प्रार्थना पर आश्रित था मैं
जैसे कोई असाध्य रोगी
आश्रित हो
महामृत्युंजय मंत्र पर।
***
जानता था
उसका गुस्सा जल्दी शांत नही होता
वो तोड़ देती है
सम्बन्धों के सारे कोमल तंतु
बना लेती राय
फिर भी भरोसा था
मान जाएगी जरूर
और हंसेगी
मेरी मूर्खताओं पर
शायद अगले दिन।
***
उसकी अंतिम
सलाह यह थी
हो सके तो भविष्य में
अपनी कायरता कम करने का प्रयास करना
बतौर पुरुष मेरे अह्म को
इस सलाह पर बुरा नही लगा
क्योंकि अपनी अनुपस्थिति में भी
वो साहसी देखना चाहती थी मुझे।
***
जब वो कह देती कि
मुझे कुछ नही सुनना
फिर सच में कुछ नही सुनती थी
मेरी सफाई लौट आती
मुझ तक लाचार
तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद मैं
पड़ जाता था नितांत अकेला
तब मैं इन्तजार करता
उसके कान ठंडे होने का
फूंक मारता रहता
दुआ पढ़ते मौलवी की तरह।
***
इस बार का गुस्सा
अनापेक्षित था
मगर था बेहद गहरा रोष
उसनें उतनी कड़वी बातें कहीं
जितनी कह सकती थी
और चली गई
मुड़कर भी नही देखा
सदियों से खड़ा हूँ वहीं
ताकि वो लौटें
तो माफी मांग सकूं
ये शिष्टाचार उसी से सीखा था
जो मुसीबत में
कभी काम नही आया मेरे।

© डॉ. अजीत





1 comment:

मन said...

***
ऐसा पहली बार हुआ
ना उसनें फोन उठाया
ना एसएमएस का जवाब दिया
ई मेल पढ़ी हो
इसका भी पता नही
उस दिन प्रार्थना पर आश्रित था मैं
जैसे कोई असाध्य रोगी
आश्रित हो
महामृत्युंजय मंत्र पर।
*** Khoob ...