Tuesday, October 5, 2010

दाखिल खारिज़

मुझे ठीक से याद

नही है वो वक्त

जब मै इतनी बुरी तरह

से खारिज़ नही था

अपनें-परायों के बीच

अच्छी यादें तो बनी

रहनी चाहिए थी

लेकिन बात,हर बात और बेबात

पर जिस तरह से

मेरे खारिज़ होने का दौर है

ऐसे मे अपना होना

भी याद करना पडता है

समर्थन तलाशते

शब्द अब खुद बखुद

तंज बन जाते हैं

जिस पर अक्सर सभी

को रंज़ होता है

मै हैरान हूं अपने

वजूद के एक जहीन

गाली बन जाने पर

अहसास के मर जाने पर

उम्मीदों को जिन्दा रखना

ख्वाबों की दस्तक

को लौटा देना

अपने बुरे वक्त की दुहाई देकर

इस उम्मीद के साथ

कि एक दिन वक्त बदलेगा

वक्त का बदलना

दरअसल एक सदमा है

जिसके अक्स मे

मेरा वजूद अपने खारिज़ होने

ही वजह तलाशता है

रोज़ाना

ठीक वैसे

जैसे बैनामे के बाद

दाखिलखारिज़ का होना

जरुरी होता है

किसी भी

खरीददार के लिए....।

डा.अजीत

6 comments:

ज्योति सिंह said...

वक्त का बदलना दरअसल एक सदमा है जिसके अक्स मे मेरा वजूद अपने खारिज़ होने ही वजह तलाशता है रोज़ाना ठीक वैसे जैसे बैनामे के बाद दाखिलखारिज़ का होना जरुरी होता है किसी भी खरीददार के लिए....।
kya gajab ka likha hai aapne ,daakhil ho gaye bhitar ye gahre bhav .ati sundar .

POOJA... said...

beautiful poem...

Dr. V.N. Tripathi said...

Mujhe lagta hai ki kavita ki talkhi kam karne ke liye aapke naam ek khubsurat bainaamaa hona chahiye!

Apanatva said...

par ye sab kyo?

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

आज पहली मुलाक़ात हुई है आपसे! आपके सृजन से छिटपुट संवाद करके वापस जाते समय सोचा कि अपने आने के चिह्न छोड़कर जाना सही होगा... सो प्रस्तुत हूँ। ...नमस्कार क़ुबूल करें, भाई!

संजय भास्‍कर said...

लहरों पर छाती पर दिल से लिखी कविता.