खुद
बेखबर हूँ मगर लोग खबर रखते है
मेरे
करीबी लोग शीशे की नजर रखते है
उदासी
देखकर उदास होने वाले दोस्त
न
जाने क्यों बस उपरी नजर रखते है
कहाँ
मै जाता हूँ कहाँ नही जाता और क्यों
महफिल
के दरबान भी इसकी खबर रखते है
किसी
को अपनाकर छोडना है मुश्किल
हम
तो अपनी दीवार मे शज़र रखते है
मुमकिन
है अब बीमार होकर मर जाना
चारागर
अब दवा की शीशी मे जहर रखते है
तन्हाई
मे सलूक निभाना है जरा मुश्किल
इस
दौर के लोग कम ही सबर रखते है
डॉ.अजीत
4 comments:
Dr.Sahab, kya khoob baatein kahi hain aapne, maano zindagi alfaazon mein bayaan kar di...haqeekat se rubaru ho rooh ab chain o sukoon se aabaad ho gayi...
वाह भाई आप ग़ज़ल अच्छी लिखते हैं पढ़ का आनंद आया
शेष फिर में भावनाओं का विस्तृत संसार ...
कहाँ मै जाता हूँ कहाँ नही जाता और क्यों
महफिल के दरबान भी इसकी खबर रखते है
डॉ साहब बेहतरीन गजल ... आपकी बिना अनुमति के आपकी ये गजल अपनी फेसबुक वाल पर ले जा रहा हु माफ़ करना ...
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