Tuesday, January 6, 2015

विदा

अब जब सबकुछ
समाप्त होने को था
हमारे मध्य
एक अपेक्षाओं का टापू
ऐसा भी था
जिसकी बंजर धरती पर
कुछ बीज बिखरे पड़े थे
उम्मीद के
शायद कभी किसी
बेमौसमी बारिश में
कुछ आवारा ख्यालों के खाद से
उनमें अंकुरण हो भी सकता था
संभावना एक छल भी था
और बल भी
हम दोनों की अरुचि के
अवैध पुत्र थे ये बीज
परन्तु उनकी
गुणवत्ता विदा से ज्यादा
खूबसूरत थी
विदा अलविदा न बनें
यह सोचकर
एक मुट्ठी बीज हमनें
अपनी जेब में रख लिए
बिना एक दूसरे को बताए
एक दूसरे की शक्ल न देखनें के
पर्याप्त कारणों के बीच
एकमात्र यही कारण
शेष बचा था
जिसे सम्बन्ध की
अधिकतम उपलब्धि समझ
विदा की शाम पर
मुस्कुराया जा सकता था
कुछ मुस्कानों का सच
बेहद जटिल होता है
विदा और अलविदा के
बीच पसरी मुस्कान
रहस्यमयी नही
उदास होती है
एक दुसरे की आँखों में
यही पढ़ पाएं हम
अंतिम बार।

© डॉ. अजीत



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