Wednesday, July 28, 2010

सज़ा

तन्हाई का सबब खुद्दारी मे निकला

रहबर जिसे समझा

वो माहिर अय्यारी मे निकला

इम्तिहान इतने लिए ज़िन्दगी ने

हर लम्हा किसी गैर की तरफदारी मे निकला

फकीर जब उसके दर पर बेआबरु हुआ

किरदार तब उसका अदाकारी से निकला

खामोशी बेबसी की तहरीर थी

इल्जाम गवाह की ईमानदारी पे निकला

खुदा भी हैरान रहा इस बात पर

ताउम्र खुशियाँ बेचने वाले का

आखिरी वक्त बडी बेज़ारी मे निकला...।

डा.अजीत

8 comments:

Sunil Kumar said...

दिल की गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना , बधाई

अनामिका की सदायें ...... said...

अंतिम पंक्तिय मार्मिक अंदाज में भिगो गयी.

संजय भास्‍कर said...

सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

संजय भास्‍कर said...

बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

pawan lalchand said...

mann ke bhaav ujagar kar diye apne Dr. Saab. bahut marmik likha hai apne isbar..

Shabad shabad said...

इम्तिहान इतने लिए ज़िन्दगी ने....

जी हाँ....ज़िन्दगी को अगर कोई दुसरे नाम से पुकारना हो तो ' इम्तिहान' कह सकते हो...

भावपुर्ण कविता...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

डा.अजीत जी
नमस्कार !
अच्छी काव्य रचना है "सज़ा"
आपकी अन्य रचनाएं भी पढ़ीं ।
सेवा के साथ सृजन अच्छा संयोग है ।

मेरी शुभकामनाएं हैं ।

शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा …

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

संजय भास्‍कर said...

भावपुर्ण कविता...