Wednesday, March 9, 2016

आग्रह

मैं विरोधाभासों
असंगतताओं और अमूर्त ख्यालों को
आड़े तिरछे खड़ा कर
कविता की छाँव में
दुनिया से भागकर
खुद से उकताकर
प्राश्रय लेता हूँ
मेरी पीठ पर आपकी बात छपी है
तो पढ़ लीजिए
आपकी बात में भी किसी और की बात
जरूर आश्रय लिए होगी
सारा खेल इन बातों का ही है
जिनके अर्थ और सन्दर्भ भिन्न है
मगर जख़्म और पीड़ाएं लगभग समान है
जितना नजर आता हूँ मैं
कविता की ओट में
उतना ही नही हूँ मैं
इसलिए मेरी कोई बात अंतिम सच नही है
कल मेरे बदलनें पर आप ये मत कहना
कवि झूठा था
या कविताएं गल्प थी सब
कवि और कविता के बीच में खड़ा हुआ मनुष्य
किन किन शर्तों और बहाने से
खुद को खड़ा रखता है
नही बता सकता ये बात
वो किसी कविता के जरिए
इसलिए उस पर सन्देह करना तो प्रेम भी करना
दोनों एकसाथ करने का आग्रह
दुनिया में एकमात्र
कवि ही कर सकता है।

©डॉ.अजित

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