एक दिन भूल जाऊँगा मैं
समस्त विद्याएं
नही भेद कर सकूंगा
विधाओं में
आदमी को परखना और समझना तो
खैर मुझे कभी नही आया
दुनिया की सबसे निष्प्रयोज्य वस्तु बन जाऊँगा एकदिन
आदमी से वस्तु बनना
कोई अच्छा या खराब अनुभव नही होगा
बस एक बेवजह का अनुभव जरूर होगा
तब मेरी बातों में न रस होगा और न व्यंग्य
अर्थ के दरवाजें कस लेंगे अपनी सांकल
अँधेरा सवार हो जाएगा रोशनी की पलकों पर
परिवेश मेरा आंकलन करेगा तब
कुछ किलो और ग्राम में
मेरा होगा एक निश्चित द्रव्यमान
मेरे शब्दों में नही बचेगी लेशमात्र भी गुणवत्ता
मेरे भाव हो जाएंगे बाँझ
मेरी आकृति हो जाएगी धूमिल
मेरा होना तब होगा
रूचि और कौतुहल से परे
मेरी स्मृतियां ऐन वक्त पर दे जाएगी धोखा
नही बता सकूंगा मैं सही दिन और साल
कहने के लिए मेरे पास नही बचेगा एक भी सम्बोधन
मेरी टिप्पणियों के अर्थ उड़ जाएंगे हवा में
धरती पहाड़ जंगल और नदी मान लेंगे
मेरा प्रवासी होना
नही सुनाएंगे मुझे वो कोई पीड़ा या गीत
अपनों और सपनों की भीड़ में
मैं भूल जाऊँगा खुद के स्पृश
देह और मन की उम्र पारे की तरह
लोक के तापमान से चढ़ती रहेगी ऊपर नीचे
ऐसे विकट समय में
क्या तुम कह सकोगी मुझे ठीक इतना ही अपना
जितना आज कहती हो
कभी खुलकर कभी छिपकर
ये कोई सवाल नही है तुमसे
ये एक जवाब है
जो हम दोनों जानते है मगर
ये दुनिया नही जानती
जो हंसती है
रोती है
कुढ़ती है
चिढ़ती है
हमें तुम्हें यूं साथ देखकर।
©डॉ.अजित
समस्त विद्याएं
नही भेद कर सकूंगा
विधाओं में
आदमी को परखना और समझना तो
खैर मुझे कभी नही आया
दुनिया की सबसे निष्प्रयोज्य वस्तु बन जाऊँगा एकदिन
आदमी से वस्तु बनना
कोई अच्छा या खराब अनुभव नही होगा
बस एक बेवजह का अनुभव जरूर होगा
तब मेरी बातों में न रस होगा और न व्यंग्य
अर्थ के दरवाजें कस लेंगे अपनी सांकल
अँधेरा सवार हो जाएगा रोशनी की पलकों पर
परिवेश मेरा आंकलन करेगा तब
कुछ किलो और ग्राम में
मेरा होगा एक निश्चित द्रव्यमान
मेरे शब्दों में नही बचेगी लेशमात्र भी गुणवत्ता
मेरे भाव हो जाएंगे बाँझ
मेरी आकृति हो जाएगी धूमिल
मेरा होना तब होगा
रूचि और कौतुहल से परे
मेरी स्मृतियां ऐन वक्त पर दे जाएगी धोखा
नही बता सकूंगा मैं सही दिन और साल
कहने के लिए मेरे पास नही बचेगा एक भी सम्बोधन
मेरी टिप्पणियों के अर्थ उड़ जाएंगे हवा में
धरती पहाड़ जंगल और नदी मान लेंगे
मेरा प्रवासी होना
नही सुनाएंगे मुझे वो कोई पीड़ा या गीत
अपनों और सपनों की भीड़ में
मैं भूल जाऊँगा खुद के स्पृश
देह और मन की उम्र पारे की तरह
लोक के तापमान से चढ़ती रहेगी ऊपर नीचे
ऐसे विकट समय में
क्या तुम कह सकोगी मुझे ठीक इतना ही अपना
जितना आज कहती हो
कभी खुलकर कभी छिपकर
ये कोई सवाल नही है तुमसे
ये एक जवाब है
जो हम दोनों जानते है मगर
ये दुनिया नही जानती
जो हंसती है
रोती है
कुढ़ती है
चिढ़ती है
हमें तुम्हें यूं साथ देखकर।
©डॉ.अजित
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