Monday, December 28, 2015

एकदिन

एक दिन भूल जाऊँगा मैं
समस्त विद्याएं
नही भेद कर सकूंगा
विधाओं में
आदमी को परखना और समझना तो
खैर मुझे कभी नही आया
दुनिया की सबसे निष्प्रयोज्य वस्तु बन जाऊँगा एकदिन
आदमी से वस्तु बनना
कोई अच्छा या खराब अनुभव नही होगा
बस एक बेवजह का अनुभव जरूर होगा
तब मेरी बातों में न रस होगा और न व्यंग्य
अर्थ के दरवाजें कस लेंगे अपनी सांकल
अँधेरा सवार हो जाएगा रोशनी की पलकों पर
परिवेश मेरा आंकलन करेगा तब
कुछ किलो और ग्राम में
मेरा होगा एक निश्चित द्रव्यमान
मेरे शब्दों में नही बचेगी लेशमात्र भी गुणवत्ता
मेरे भाव हो जाएंगे बाँझ
मेरी आकृति हो जाएगी धूमिल
मेरा होना तब होगा
रूचि और कौतुहल से परे
मेरी स्मृतियां ऐन वक्त पर दे जाएगी धोखा
नही बता सकूंगा मैं सही दिन और साल
कहने के लिए मेरे पास नही बचेगा एक भी सम्बोधन
मेरी टिप्पणियों के अर्थ उड़ जाएंगे हवा में
धरती पहाड़ जंगल और नदी मान लेंगे
मेरा प्रवासी होना
नही सुनाएंगे मुझे वो कोई पीड़ा या गीत
अपनों और सपनों की भीड़ में
मैं भूल जाऊँगा खुद के स्पृश
देह और मन की उम्र पारे की तरह
लोक के तापमान से चढ़ती रहेगी ऊपर नीचे
ऐसे विकट समय में
क्या तुम कह सकोगी मुझे ठीक इतना ही अपना
जितना आज कहती हो
कभी खुलकर कभी छिपकर
ये कोई सवाल नही है तुमसे
ये एक जवाब है
जो हम दोनों जानते है मगर
ये दुनिया नही जानती
जो हंसती है
रोती है
कुढ़ती है
चिढ़ती है
हमें तुम्हें यूं साथ देखकर।

©डॉ.अजित 

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