एक स्त्री के मन को
जानने और समझनें के दावें
उतने ही खोखलें है
जितना जीवन वो जानने समझनें के है
स्त्री जीवन की तरह विश्लेषण की नही
जीने की विषय वस्तु है
वस्तु शब्द पर खुद मुझे ऐतराज़ है
मगर शब्दकोश भी बौना है
वो नही बता पाया
आज तक स्त्री की सम्पूर्णता पर एक
प्रमाणिक शब्द
अनुमानों और प्रतिमानों से
बचना चाहिए
जब बात एक स्त्री की हो
क्योंकि
स्त्री धारणाओं में नही जीती
समर्पण उसका स्थाई सुख भी है
और दुःख भी
स्त्री को समझना
दरअसल खुद को समझना है
अनुराग की देहरी पर बैठ
आलम्बन की चक्की पिसते हुए
उसके चेहरे पर जो थकान दिखती है
वो थकान नही है दरअसल
वो उसकी देह पर मन की छाया है
जिनका सौंदर्यबोध कमजोर है
वो नही देख पातें
ऐसी थकान की ख़ूबसूरती
स्त्री का मन
आलम्बन नही स्वतंत्रता चाहता है
न जाने किस उत्साह में जिसे
आश्रय की अभिलाषा समझ लिया जाता है
धरती की तरह
स्त्री जनना जानती है उम्मीदें
इसलिए उम्मीदों के लगातार टूटने पर भी
नही छोड़ती वो अपना एक धर्म
प्रासंगिकता की बहस में
वो निकल जाती है अकेली बहुत दूर
क्योंकि
जब तुम विश्लेषण में रहते हो व्यस्त
कर रहे होते हो अपेक्षाओं का आरोपण
तब एक स्त्री
बीन रही होती है अधूरी स्मृतियों की लकड़ियाँ
जला रही होती है खुद को
ताकि आंच ताप और रोशनी में
नजर आ सके सब कुछ साफ़ साफ़
स्त्री सम्भावना को मरने नही देती
एक यही बात
न उसे जीने देती और न मरने देती
जब कोई करता है स्त्री के अस्तित्व पर भाष्य
देता है मनमुताबिक़ सलाह
स्त्री हंस पड़ती है
उसे प्रशंसा समझ
मुग्ध होने की नही सोचने की जरूरत है
एक यही काम है
जो शायद कोई नही करता।
© डॉ. अजित
जानने और समझनें के दावें
उतने ही खोखलें है
जितना जीवन वो जानने समझनें के है
स्त्री जीवन की तरह विश्लेषण की नही
जीने की विषय वस्तु है
वस्तु शब्द पर खुद मुझे ऐतराज़ है
मगर शब्दकोश भी बौना है
वो नही बता पाया
आज तक स्त्री की सम्पूर्णता पर एक
प्रमाणिक शब्द
अनुमानों और प्रतिमानों से
बचना चाहिए
जब बात एक स्त्री की हो
क्योंकि
स्त्री धारणाओं में नही जीती
समर्पण उसका स्थाई सुख भी है
और दुःख भी
स्त्री को समझना
दरअसल खुद को समझना है
अनुराग की देहरी पर बैठ
आलम्बन की चक्की पिसते हुए
उसके चेहरे पर जो थकान दिखती है
वो थकान नही है दरअसल
वो उसकी देह पर मन की छाया है
जिनका सौंदर्यबोध कमजोर है
वो नही देख पातें
ऐसी थकान की ख़ूबसूरती
स्त्री का मन
आलम्बन नही स्वतंत्रता चाहता है
न जाने किस उत्साह में जिसे
आश्रय की अभिलाषा समझ लिया जाता है
धरती की तरह
स्त्री जनना जानती है उम्मीदें
इसलिए उम्मीदों के लगातार टूटने पर भी
नही छोड़ती वो अपना एक धर्म
प्रासंगिकता की बहस में
वो निकल जाती है अकेली बहुत दूर
क्योंकि
जब तुम विश्लेषण में रहते हो व्यस्त
कर रहे होते हो अपेक्षाओं का आरोपण
तब एक स्त्री
बीन रही होती है अधूरी स्मृतियों की लकड़ियाँ
जला रही होती है खुद को
ताकि आंच ताप और रोशनी में
नजर आ सके सब कुछ साफ़ साफ़
स्त्री सम्भावना को मरने नही देती
एक यही बात
न उसे जीने देती और न मरने देती
जब कोई करता है स्त्री के अस्तित्व पर भाष्य
देता है मनमुताबिक़ सलाह
स्त्री हंस पड़ती है
उसे प्रशंसा समझ
मुग्ध होने की नही सोचने की जरूरत है
एक यही काम है
जो शायद कोई नही करता।
© डॉ. अजित
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