Sunday, December 6, 2015

चुप

उन दिनों जब बेवजह चुप थी तुम
मौन का भाष्य कर रहा था मैं
चुप की बोली का अनुवाद करने के लिए
बना रहा था एक स्वतन्त्र शब्दकोश
अनुमानों को परख रहा था
समय की प्रयोगशाला में
तुम्हें कहे शब्दों को कर रहा था संग्रहित
स्मृतियों के संग्रहालय में
मन से मन दूरी नापने के लिए
दिल की दहलीज़ और मन की मुंडेर पर
स्थापित की थी दो अलग अलग वेधशालाएं
तुम्हारी हंसी को सूखा रहा था पुराने चावल की तरह
ताकि उसकी खुशबू से महक सके मन का उदास कोना
तुम्हारी मुस्कान को नाप रहा था इंच और दशमलव में
ताकि वहां हिस्सों में खड़े अपने पागलपन को देख सकूं
अपने सायास अनायास अपराधों को कर रहा था सूचीबद्ध
ताकि खुद की सफाई में दे सकूं कुछ ठोस दलील
स्पर्शों की तह में देख रहा था अपनत्व की नमी
बचा रहा था उन्हें संदेह की सिलवट से
जिन दिनों तुम बेवजह चुप थी उनदिनों
ठहर गई थी दुनिया
बदल गए थे ग्रहों उपग्रहों के परिक्रमा के चक्र और पथ
सूरज की तरफ तुम्हारी पीठ थी
चाँद को हथेली ढ़क दिया था तुमने
तारें धरती पर लेट देख रहे थे तुम्हारा चेहरा
उनकी काना फूसी देख दुखी था आकाश
एक तुम्हारी चुप ने
नदियों के किनारे बदल दिए थे
पहाड़ कराह रहे थे सर्वाइकल के दर्द से
जंगल में लग गई थी निषेधाज्ञा
कोई पत्ता नही करता था अब उसकी चुगली
पेड़ झुक कर बैठ गए थे नमाज़ पढ़ने
तुम बेवजह चुप थी
और मैं वजह तलाश रहा था हर जगह
मेरी ये दशा देख हवा मुझसे कहती
चुप की वजह नही चुप तोड़ने की विधि तलाशों
ये चुप तुम पर ही नही
पूरी सृष्टि पर भारी है
हवा की सलाह पर थोड़ी देर के लिए
चुप हो जाता था मैं।

© डॉ. अजित

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