मन की बातें: सात के आसपास
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मेरा मन
तुम्हारे मन की गोद में
पलकें मूंदें सो रहा है
गुजारिश है
उठाना मत
पाप लगेगा।
***
एक ख्वाब
तुम्हारी पलकों
पर सूखाया है
आंसूओं की बारिश से
उसे गिला मत कर देना
पुण्य होगा।
***
तुम्हारी हथेली का भूगोल
रेखाओं ने अस्त व्यस्त कर दिया है
पढ़ नही पाता हूँ
तुम्हारे शहर का मानचित्र
अपने हाथ से मिलाता हूँ
स्पर्शों के अक्षांश
और भूल जाता हूँ
देशान्तर के भेद।
***
यथार्थ को जीते हुए
तुम्हारे नाखून
अपना कलात्मक मूल्य खो बैठें हैं
उन्हें तराशने की फुरसत नही तुम्हें
ख़ूबसूरती से इतर
ये तुम्हें लापरवाह दिखातें है
जबकि
तुम्हारी पीठ जिम्मेदारी से झुकी हुई है
ये बात मैं जानता हूँ ।
***
तुम्हारी चप्पल
एक तरफ से अधिक घिसी हुई है
संतुलन के चक्कर में
एक तरफ अधिक झुक जाती हो तुम
नही जानती कि
इससे फिसलनें का खतरा बढ़ जाता है
नही चाहता तुम कभी फिसलों
क्योंकि हर वक्त सम्भालनें के लिए
मैं उपलब्ध नही हूँ
तुम्हारे आसपास।
***
तुम्हारी परछाई में
ऊकडू बैठ
जमीन पर बनाता हूँ एक त्रिकोण
तुम्हारी यूं ओट लेना
पुरुषोचित भले ही न लगे तुम्हें
मगर
यह मेरा तरीका भर है
तुम्हारी छाया से बातचीत करने का।
***
तुम्हारी गर्दन पर
अस्वीकृति की टीकाएं थी
पाप पुण्य के भाष्य थे
बालों से बहते शंका के झरने थे
मगर मैंने पढ़ा प्रेम
जो लिखा था स्पर्श की लिपि में
संयोग से
जिसकी ध्वनि
आलिंगन से मिलती जुलती थी।
© डॉ. अजीत
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मेरा मन
तुम्हारे मन की गोद में
पलकें मूंदें सो रहा है
गुजारिश है
उठाना मत
पाप लगेगा।
***
एक ख्वाब
तुम्हारी पलकों
पर सूखाया है
आंसूओं की बारिश से
उसे गिला मत कर देना
पुण्य होगा।
***
तुम्हारी हथेली का भूगोल
रेखाओं ने अस्त व्यस्त कर दिया है
पढ़ नही पाता हूँ
तुम्हारे शहर का मानचित्र
अपने हाथ से मिलाता हूँ
स्पर्शों के अक्षांश
और भूल जाता हूँ
देशान्तर के भेद।
***
यथार्थ को जीते हुए
तुम्हारे नाखून
अपना कलात्मक मूल्य खो बैठें हैं
उन्हें तराशने की फुरसत नही तुम्हें
ख़ूबसूरती से इतर
ये तुम्हें लापरवाह दिखातें है
जबकि
तुम्हारी पीठ जिम्मेदारी से झुकी हुई है
ये बात मैं जानता हूँ ।
***
तुम्हारी चप्पल
एक तरफ से अधिक घिसी हुई है
संतुलन के चक्कर में
एक तरफ अधिक झुक जाती हो तुम
नही जानती कि
इससे फिसलनें का खतरा बढ़ जाता है
नही चाहता तुम कभी फिसलों
क्योंकि हर वक्त सम्भालनें के लिए
मैं उपलब्ध नही हूँ
तुम्हारे आसपास।
***
तुम्हारी परछाई में
ऊकडू बैठ
जमीन पर बनाता हूँ एक त्रिकोण
तुम्हारी यूं ओट लेना
पुरुषोचित भले ही न लगे तुम्हें
मगर
यह मेरा तरीका भर है
तुम्हारी छाया से बातचीत करने का।
***
तुम्हारी गर्दन पर
अस्वीकृति की टीकाएं थी
पाप पुण्य के भाष्य थे
बालों से बहते शंका के झरने थे
मगर मैंने पढ़ा प्रेम
जो लिखा था स्पर्श की लिपि में
संयोग से
जिसकी ध्वनि
आलिंगन से मिलती जुलती थी।
© डॉ. अजीत
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