Wednesday, March 4, 2015

बसन्त

तुम्हारी अनुपस्थिति में
रूपांतरित होता हूँ मैं
अनुराग से वैराग्य तक
वैराग्य की देहरी पर
जब छोड़ता है अनुराग मेरा हाथ
बिलख कर रो पड़ता हूँ मैं
तुम याद आती हो
साधना की शक्ल में
वैराग्य के एक दशक में
तुम नही आती कभी याद
जब लगभग सिद्ध होने को होता हूँ
अचानक स्मृति पर होता है
शक्तिपात
वैराग्य अपनी पीठ पर बैठा
फिर छोड़ आता मुझे
अनुराग की अंधेरी गुफा में
जाते वक्त मारता है ताना
लौट जाओं उसी दुनिया में
तैयारी अभी अधूरी है तुम्हारी
पहले ठीक से
जी कर आओं कुछ बसन्त।

© डॉ. अजीत


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