Wednesday, October 21, 2015

फर्क

उसनें कहा
तुम खुश होना भूल गए हो
तुम्हारी ध्वनियां अनुशासित है बहुत
बेवजह की एक चीज है तुम्हारे पास
वो है उदासी
तुम प्रशंसा की खुराक पर जीवित हो
मगर उसका भी उपयोग नही जानते
विलम्ब और अनिच्छा से मध्य सो रहे हो
न जाने कब से
मैंने कहा सब का सब सच कहा तुमनें
फिर वो उखड़ गई
मेरे आत्म समपर्ण पर और बोली
सच कहूँ या झूठ
तुम्हें क्या फर्क पड़ता है
मैंने कहा फर्क पड़े न पड़े
इस बहाने तुम्हारी अरुचि पढ़ लेता हूँ मैं
और खुश हो जाता हूँ
अपनें ऐसा होने पर
वैसे एक बात यह भी है
हम एक दुसरे को बदलनें के लिए नही
एक दुसरे के लिए जीने के लिए बनें हैं।

© डॉ. अजित 

1 comment:

मन्टू कुमार said...

एक दूसरे के लिए जीने के लिए बनें हैं...
शेष फिर..