Wednesday, July 22, 2015

गुफ़्तगु

अभी तो रूह ने करवट ली थी
पलको से अहसासों की गर्द छटी थी
बेफिक्र आफ्ता साँसों ने इल्तज़ा की थी
कुछ गिरह खुल भी न पाई
एक सुरमई शाम
ख्वाब की दहलीज़ पर बैठी सिसकती है
शक ओ शुबहो में खर्च होती
जिंदगी को थोडा संवर जाने दो
बेसाख्ता लम्हों को बिखर जाने दो
रोज़ उलझते हुए दयारो में
जब तुमसे मुलाक़ात होती है
लफ्ज़ अहसास की चादर से छिटक जाते है
जैसे रात के अँधेरे में कुछ आवारा ख्याल
अपनी धुन में निकल जाते है
मैं लम्हा लम्हा सिरे जोड़ता हूँ
तुम्हे तुम्हारे अंदर तलाशता हुआ
आवाज़ देता हूँ मगर तब तक
वक्त की गर्दिशे ख्याल को जब्त कर जाती है
सुबह ओस की पहली बूँद सी बातें बिखर जाती है दुनियादारी की चौखट पर उदासी के दिए जलते है
कुछ अहसासों को महफूज़ कर लेता हूँ कि
किसी दिन बात से बात निकले
तो वो बात कह सकूं
हां ! मुझे शिद्दत से तुम्हारा इन्तजार रहता है
हो किसी शाम तुम्हारा साथ
और बुनते रहे कुछ आवारा ख्याल
मंजिल से बड़े हो जाए कुछ रास्ते
फिर पुरकशिस लम्हों का लोबान जला
फूंक दू कुछ दुआ तुम्हारे हक में
कैद कर कुछ लम्हों को अक्सों की शक्ल में
एक बोसा लूँ उन आवारा ख्यालो का
जो रोज़ अपने सिराहने बो सो जाती हो तुम
बातें मेरी समझनें जरूरत कब जानाँ
बातों से मेरी रफू करना अपनी तन्हाई को
पैबन्द लगाना कुछ अनकहे ख्यालों का
तुम्हारे लिए नींद को गिरवी रख
चन्द ख्याल उधार लाया हूँ
धड़कनों के बीच अटक गई है
कुछ बातें उनको सुनोंगी तो पाओगी
दिल से रूह के दरम्यां कुछ लम्हें घरोंदे बनाते है
कुछ बेअदब से ख्याल
कुछ आवारा सी रोशनी
मेरी रूह को रोशन करती है
एक तुम्हारा तस्सवुर काफी है
मुझे फिलहाल उधार की जिंदगी के लिए।

© डॉ. अजित

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