Saturday, May 30, 2015

तिराहा

पहली बार
तुम्हारे शहर के तिराहे से विदा हुआ
दोराहें और चौराहें से कितना अलग था
तिराहें से विदा होना
एक सड़क सीधी जा रही थी
शहर के आरपार
एक तुम्हारे घर की तरफ
मैं समकोण पर खड़ा
सोच रहा था किधर जाऊं
एक तरफ शहर था
एक तरफ तुम थी
और एक तरफ मैं
जिस तरफ मैं खड़ा था
वो दुनिया की सबसे निर्धन जगह थी
ये जाना तुम्हारे चले जाने के बाद।
***
तिराहें पर खड़ा होना
गुरुत्वाकर्षण खो देने जैसा था
टी पॉइंट से राईट हो रहे थे लोग
और मैं लेफ्ट की तरफ
तांक रहा था
मैंने लेफ्ट इसलिए चुना
तमाम अजनबीयत के बावजूद
लेफ्ट में पड़ा मेरा दिल
धड़क रहा था तुम्हें देखकर
उस वक्त मेरे जिन्दा होने की
यही एक मात्र पुष्टि थी।
***
तिराहे पर खड़े होकर
याद आ रहा था तुम्हारा गुस्सा
मैं गुस्से में था दुखी था अनमना था
नही जानता
गुस्से की आवाजाही में
मैं शहर के उस
सिविल इंजीनियर पर बेहद खफा था
जिसकी नगर योजना का
हिस्सा रहा था यह तिराहा।
***
देर तक खड़ा
यही सोचता रहा
आखिर जिंदगी में क्यों आतें हैं
दोराहें,तिराहें और चौराहें
जब अनमना हो
चुनना पड़ता है
एक रास्ता
दरअसल रास्तें हमें
कहीं नही ले जाते
रास्ते केवल छोड़ते है
दूसरे रास्तें के मुहानें पर
मंजिल इन्ही रास्तों के बीच फंसी
सबसे उदास जगह है।

© डॉ. अजीत

No comments: