Tuesday, September 29, 2015

हमदर्द

मेरे हमदर्द होने का वो यूं पता देते थे
दर्द जहां था बस वहीं से दबा देते थे

जमानतें मांगता था वो दुनिया भर की
आदतन हम अपना शेर सुना देते थे

तड़फने का एक मंसब इतना हसीं था
रोते हुए भी बारहा हम मुस्कुरा देते थे

बिछड़ कर उनसे हुआ ये मालूम हमें
शिकारी भी कभी परिंदे उड़ा देते थे

रात का सफर एक मुसलसल किस्सा था
रोज़ सुबह ख़्वाबों की ख़ाक उड़ा देते थे

© डॉ.अजित

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