Friday, June 20, 2025

अप्रेम की कविताएं

 अप्रेम की कविताएं

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प्रेम उनके लिए नहीं था

जो प्रेम की तलाश में चले थे कई प्रकाश वर्ष

प्रेम उनके लिए था

जिन्हें यह मिला था अकस्मात और अनियोजित।

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प्रेम की हत्या प्रेमी ने खुद की

और दोष दिया परिस्थिति को

प्रेम मगर निरापद रहा

और प्रेमी बना अपराधी।

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प्रेम में औसत होना चुनाव नहीं था

प्रेम में उत्कृष्ट होना अनिवार्य था

प्रेम में मनुष्य वो सब बना

जो वो मूलत: नहीं था

प्रेम की हिंसा इतनी कोमल थी

कि  व्याधि लगने लगती थी उपचार।

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किसी को बुरा बताकर

अलग हो जाना बहुत सहज है

किसी को अच्छा समझकर

छोड़ना सदा से मुश्किल रहा प्रेम में।

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उन्हें प्रेम नहीं करना चाहिए

जो अटक जाते हैं मन के एक खास प्रहर में

प्रेम में सुबह, दोपहर और शाम सब होती है

प्रेम की रात बदला लेती है

अटके हुए लोगों से

भटके हुए फिर भी हो जाते हैं उस पार।

© डॉ. अजित

Tuesday, February 18, 2025

मृतक के लिए

 

मृतक के लिए

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थोड़ी सी शिकायतें

थोड़ा सा अपराधबोध

थोड़ी सी ग्लानि

और छिटपुट बचा हुआ प्रेम

एकसाथ मिलकर  करते हैं

मृतक का तर्पण

 

मृतक मुड़-मुड़ कर देखता है

कुछ समय तक तक

जब सब कुछ होने लगता है सामान्य

वो देखना बंद कर कूद जाता होगा आगे की तरफ

आगे की तरफ कुछ भी हो सकता है

स्वर्ग-नर्क,शून्य या फिर से एक नया जीवन

 

मृतक की स्मृतियाँ दास बनने लगती हैं

अवसर-तीज-त्योहार की

समाप्त जीवन और पीछे बचे जीवन के अलावा भी  

चलता है एक जीवन समानांतर

 

उस जीवन को देखने के लिए

मरना नहीं पड़ता

बस जीना पड़ता है लगातार निरुद्देश्य

 

मृतक से मिलने के मृत्यु नहीं

जीवन ही माध्यम है

मृत्यु के जरिए नहीं मिला जा सकता

किसी परिजन या दोस्त से

 

इसलिए मृत्यु मृतक के लिए

एक अंतिम धक्का है

सबको दूर निकल जाने के लिए

और पीछे बचे लोगो के लिए

एक आवश्यक तैयारी

ताकि वे चोटिल होने के भय से धक्के से

बचने के अवसर न तलाश सके.

 

©डॉ. अजित

 

 

 

 

 

 

 

 

Sunday, January 19, 2025

कौतूहल

उनके पास सवाल थे
जवाब सुनने का धैर्य नहीं
वे सवाल को उछालते थे गेंद की तरह 
और व्यस्त हो जाते थे आसपास
फिर वो सवाल गेंद की शक्ल में टप्पा खाते हुए 
 निकल जाते थे किसी दूसरे ग्रह की तरफ 

 मेरे जवाब बन जाते थे धूमकेतु 
 जिन्हें मुझे ही नष्ट करना था एकदिन 
 वे प्रेम करना चाहते थे 
 मगर प्रेम में डूबना नहीं था उन्हें पसंद
इसलिए उनके इर्द-गिर्द नदी नहीं
हमेशा रेगिस्तान रहा मौजूद
जिसकी झुलस से तपता रहा उनका बदन
मेरी बातें नहीं दे सकी उन्हें कोई छाँव

उनके पास कच्चा-पक्का कौतुहल था
बेहोशी से भरा कल था
मगर वे करते थे बात आज की अक्सर
उनके मन में कोई नियोजन न था 
 भविष्य को भूल वे जी रहे थे
वर्तमान को अपने अतीत की तरह

उनसे मिलने के लिए किए गए सारे षड्यंत्र
खो देते थे एकदिन दु:साहस की आभा
और दिखने लगते थे बेहद मामूली

भीड़ से चिल्लाते हुए जब मैंने कहा
मैं आया हूँ तुम तक बहुत भटक कर
उन्होंने पिलाया मुझे पानी खिलाया
खिलाया अपना अन्न 
और कही एक गहरी बात
‘दरअसल तुम समझे नहीं’

प्रेम हमेशा समझाने आया कुछ न कुछ
जिसे कभी समझ नहीं पाया मैं. 

 © डॉ. अजित