आपकी तकलीफ काबिल-ए-गौर है
ये इंसानो को जल्दी भुला देने का दौर है
पहले अक्सर उदास हो जाता था मै भी
आजकल अपनी याददाश्त कमजोर है
उदास आंखो में चमक नही फबती
ऐसा नही है मेरा ध्यान कही और है
दो आँसू छलक जातें जिसकी याद में
वो समझता है बंदा दिल का कमजोर है
मंजिल मुबारक तुम्हे ए हमराह
अपने काफिले का रास्तों पर ठौर है
महफिल मे आदाब सीख कर जाना
वहाँ सभी कहते है एक जाम और है
डॉ.अजीत
3 comments:
वाह अजीत भाई जी, बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत सी बधाई. आज के दौर की एकदम सटीक व्याख्या की है आपने और उसमे स्वयं के रोल को जिस खूबी से बिठाया है वह भी सराहनीय है..!!
एक दो रोज़ में हर आँख ऊब जाती है
दिल को मंजिल नहीं रास्ता समझने लगते हैं
जिन को हासिल नहीं वो जान देते रहते हैं
जिन्हें हासिल हूँ वो सस्ता समझने लगते हैं
मंजिल मुबारक तुम्हे ए हमराह अपने काफिले का रास्तों पर ठौर है
महफिल मे आदाब सीख कर जाना वहाँ सभी कहते है एक जाम और है
बहुत खूबसूरत ।
पहले अक्सर उदास हो जाता था मै भी आजकल अपनी याददाश्त कमजोर है
BAHUT HI KHUB AJEET BHAI AAJ KAL APNA BHI YAHI DOUR CHAL RAHA HAI YADDASHT KAMJOR HO JATI (YA KAHIYE KI KAMJOR KAR LETE HAI) HAI. BAHUT HI BEHATARIN GAJAL PESH KARNE KE LIYE TAHE-DIL SE APKA SHUKRIYA
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