Sunday, January 29, 2017

ग्लानि

कुछ दिनों से
उससे खिंचा खिंचा सा रहता हूँ
मेरे जवाबों मे तल्खियां रहती है
जानता हूँ सब बेवजह की है
मगर
उसको एक सिरे से खारिज़ करता चला जाता हूँ

किसी को खारिज़ करना सुखप्रद हो सकता है
मगर उसको खारिज़ करके
हमेशा गहरे पश्चाताप से गुजरता हूँ
हैरत इस बात की है
ये पश्चाताप मुझे बदलता नही है

मुझे कोई नाराजग़ी नही है
मैं खुद से भी खफा नही हूँ

दरअसल
क्यों कर रहा हूँ ये सब
मुझे खुद पता नही है

इसलिए लिख कर कम कर रहा हूँ
अपनी ग्लानि
ग्लानि केवल लिख रहा हूँ
महसूस करते समय बंद कर लेता हूँ दरवाजा

जहां मुझे कोई नही देख रहा
वहां तुम देख रही हो मुझे

मैं छिपने के लिए जगह तलाश रहा हूँ
यह कविता उसी जगह की तलाश के नाम
की गई एक ज्यादती है।

© डॉ.अजित

3 comments:

विरम सिंह said...

आपकी रचना बहुत सुन्दर है। हम चाहते हैं की आपकी इस पोस्ट को ओर भी लोग पढे । इसलिए आपकी पोस्ट को "पाँच लिंको का आनंद पर लिंक कर रहे है आप भी कल रविवार 5 फरवरी 2017 को ब्लाग पर जरूर पधारे ।

Onkar said...

सुन्दर रचना

कौशल लाल said...

सुन्दर