Sunday, January 19, 2025

कौतूहल

उनके पास सवाल थे
जवाब सुनने का धैर्य नहीं
वे सवाल को उछालते थे गेंद की तरह 
और व्यस्त हो जाते थे आसपास
फिर वो सवाल गेंद की शक्ल में टप्पा खाते हुए 
 निकल जाते थे किसी दूसरे ग्रह की तरफ 

 मेरे जवाब बन जाते थे धूमकेतु 
 जिन्हें मुझे ही नष्ट करना था एकदिन 
 वे प्रेम करना चाहते थे 
 मगर प्रेम में डूबना नहीं था उन्हें पसंद
इसलिए उनके इर्द-गिर्द नदी नहीं
हमेशा रेगिस्तान रहा मौजूद
जिसकी झुलस से तपता रहा उनका बदन
मेरी बातें नहीं दे सकी उन्हें कोई छाँव

उनके पास कच्चा-पक्का कौतुहल था
बेहोशी से भरा कल था
मगर वे करते थे बात आज की अक्सर
उनके मन में कोई नियोजन न था 
 भविष्य को भूल वे जी रहे थे
वर्तमान को अपने अतीत की तरह

उनसे मिलने के लिए किए गए सारे षड्यंत्र
खो देते थे एकदिन दु:साहस की आभा
और दिखने लगते थे बेहद मामूली

भीड़ से चिल्लाते हुए जब मैंने कहा
मैं आया हूँ तुम तक बहुत भटक कर
उन्होंने पिलाया मुझे पानी खिलाया
खिलाया अपना अन्न 
और कही एक गहरी बात
‘दरअसल तुम समझे नहीं’

प्रेम हमेशा समझाने आया कुछ न कुछ
जिसे कभी समझ नहीं पाया मैं. 

 © डॉ. अजित

6 comments:

Digvijay Agrawal said...

उनके पास सवाल थे
सुंदर प्रश्न
सादर

सुशील कुमार जोशी said...

वाह

Sweta sinha said...

'दरअसल,तुम समझे नहीं...' गज़ब लिखा है।
बेहतरीन ।
सादर।
------
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २१ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

Onkar said...

सुंदर रचना

शुभा said...

वाह! बेहतरीन!

अनीता सैनी said...

बहुत सुंदर।