Friday, September 26, 2025

अनकहा

 

कविता की तरफ लौटता मनुष्य

कविता की बात नहीं करता

प्रेम की तरफ लौटता

अंधविश्वासी बन जाता है

जीवन की तरफ लौटता हुआ

दर्शन भूल जाता है  

और मृत्यु की तरफ लौटने के समय

याद करता है

न किए गए पाप.

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महीन से महीनतर  होते जाना

जीवन की मांग है

इस मांग पर जब होता हूँ असफल

बन जाता हूँ मोटा रेत

जिसे उड़ाया नहीं जा सकता हाथ में लेकर

बुनियाद की नमी में सोने के लिए

होता हूँ प्रस्तुत

जीवन के अधिकाँश चुनाव आकस्मिक नहीं होते

मगर ऐसे दिखते जरुर हैं.

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परिंदों की भाषा

प्राय: नहीं बदलती

जिनकी भाषा बदलती रहती है

वे भूल जाते हैं अपनी उड़ान

और उतर जाते हैं

ऐसे टापू पर

जहाँ किसी को सुनाई नहीं देता.

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कुछ कहना था

मगर

उससे पहले सुनना भी था कुछ

बिन सुने जो भी कुछ कहा

वो सुना नहीं गया कभी

इसलिए मैं जो सुनता हूँ

वो है सब का सब अनकहा.

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निमित्त बनना

न सुख है न दुःख है

निमित्त नियोजन का सौतेला भाई

किसी षड्यंत्र का शिकार हो

अकेला पड़ जाना उसकी नियति है.

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दृश्य के बाहर का दृश्य

उतना ही दिखता है

जितनी हमारी देखने की सीमा है

मगर

दृश्य के अंदर का दृश्य के लिए

सीमाएं नहीं आती आड़े

आड़े आती है केवल

न देखने की इच्छा.

©डॉ. अजित

 

 

 

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