
बातें बहुत कहना चाहता हूं, कहता भी हूं, पर हमेशा अधूरी रह जाती हैं, सोचता हूं, कहूंगा...शेष फिर...
Saturday, December 22, 2007
आपसे अपनी बात

Thursday, December 20, 2007
मौन...
मौन...
मौन और सन्नाटे के बीच ,
ख़ुद से
संवाद स्थापित करना
किसी भी चिन्तनशील
व्यक्ति के लिए प्रिय-अप्रिय अनुभव
हो सकता है
परन्तु
यह मुझे अहसास होता है
कि मौन में निकले वक्तव्य
वास्तव में
एक श्रंखला बना कर
प्रश्नबोधि वातावरण बना देते हैं
स्वत:
और सन्नाटा तो मानो
प्रतीक्षारत रहता हैं
ऐसी मनस्थिति में
एक अजीब सा राग लिए,
जिसको परिभाषित
नही किया जा सकता,
हाँ ! चुभन से तीव्रता का
अंदाजा जरुर लगा सकते है
कभी-कभी
वैचारिक द्वंद में सर्जन-विखंडन
के सेतु बन जाते हैं
जिनके आर-पार बहती है
आशा कि सरिता
हम
निष्कर्ष पर पहुँचना नही चाहते,
बल्कि नेपथ्य में
धकलेना चाहते हैं
सायास
उन सभी संभावित प्रश्नों को,
जिनके कोई प्रमाणिक जवाब
शायद हमारे पास नही होता..
साहस/उत्साह/भ्रम
और यथार्थ
कि राहों पर
चलकर पहुँच जाते है
उस दिशा में
जहाँ विचार और शून्यता को
जोड़ने का यत्न चल
रहा होता है
मौन और सन्नाटे
की यह सांझी तस्वीर
कभी पीड़ित करती है
तो कभी अवसर देती है
आत्ममूल्यांकन का...
परन्तु इनकी जुगलबंदी
से उपजा संगीत
किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को
प्रेरित नही करता
कुछ सर्जन के लिए
ऐसा मैं सोचता हूँ अक्सर....."
डॉ अजीत
अदरवायिज़....
अदरवायिज़....
"एक पल का यह
ठहराव
कितना अप्रत्याशित रहा
सोचता हूँ कभी-कभी ,
तुम्हारे सन्दर्भ मे
मेरी स्वत: निर्मित होती धारणाऐ
वास्तव मे
कितनी सही थी,
यह यो ठीक-ठीक
तुम ही बता सकती हो
परन्तु,
तुम्हारी उन्मुक्तता में निहित
शिष्टता मेरे पूर्वाग्रहों को
तोड़ती रही पल-प्रतिपल,
कभी बिना लिप्त हुए
किसी का विश्लेषण करना
रोचक प्रतीत होता है ,
आज भी वह बहस
मेरी स्मर्तियों मे जीवित हैं
जब तुम्हें अपने तर्को के द्वारा ,
मुझे सीमित विश्वास का
व्यक्ति ठहराया था
तुम्हारी विजय पर
सहमति के स्वरों के बीच
तुम्हरा सरलता से
कहना कि-
प्लीज़ अदरवायिज़ मत लेना... !!
मुझे याद आता है
कभी-कभी अकेले में
साथ ही फ़ैल जाती है
चेहरे पर एक अबोध मुस्कान
अपनी सोच
और तुम्हारी अभिव्यक्ति के बारे मे...."
डॉ अजीत
Thursday, December 13, 2007
निर्वात...
निर्वात...
"कहने के लिए
कुछ शेष नहीं रहा
वैसे तो हमारे मध्य
लेकिन
एक बात कहना चाहता हूँ
यदि अन्यथा न लो तुम,
मेरा जीवन के प्रति
अतियथार्थवादी नजरिया
हो सकता है,
तुम्हे प्रिय- अप्रिय लगा हो,
लेकिन,
वास्तव में तुमसे
कुछ कह पाने का साहस
बड़ी मुश्किल से जुटा पाया हूँ
तुम्हारे स्नेह का विस्तार
किसी भी पात्र- अपात्र
व्यक्ति के लिए जीवनपर्यंत की उपलब्धि हो सकता है
परन्तु निर्वात मे
इसकी स्थापना की
तुम्हरी जिद
मेरे लिए सदेव यक्षप्रश्न रही है
अपनत्व/अधिकार की
भाषा मे कहू तो
तुम्हारी सोच संबंधो के
व्यापक अर्थ नहीं तलाश पाई,
और मैं
"अर्थ" को परिभाषित करने का
प्रयास करता रहा
तटस्थता के भाव 'अभाव' मे
अपने ओचित्य पर कई
बड़े सवाल खडे करते है
शायद इन सवालों से हम
युक्तिपुर्वक बचकर
अब नए अर्थ तलाश रहे है
नए संबंधो मे
वंही पुराने अर्थ..."
डॉ. अजीत
आप से पहली मुलाकात....
यूँ ही..
"कभी अचानक
यूँ ही मन में
बेतुका कौतुहल पैदा होता है
बात कुछ और हो
और अनायास सामने खडे हो जाते है
कुछ ऐसे अनजान चेहरे
जिन्हें हमने केवल देखा मात्र है
कही भीड़ में
वह भी क्षण भर के लिए,
बगैर किसी परिचय के
उनको जानने की हमारी जिज्ञासा
कभी तो इतनी प्रबल होती है
की
हम काल्पनिक संवाद
स्थापित करते है खुद से
संवाद में आत्मीयता के साथ होता है
अधिकार
बिना किसी बंधन के
कभी उनका चेहरा
ठीक से याद करने की कोशिश होती है
तो कभी उनसे जुड़ी
किसी वस्तु को देखते है हम अपनेपन से
ऐसा क्यों होता है
शायद ही किसी विज्ञान में
इसका कोई तार्किक उत्तर मौजूद हो
फिर कभी मुलाकात हो
इसकी शून्य सम्भावना के बावजूद भी,
हम स्वयं को उस 'आस'से
वंचित नहीं करना चाहते है
ऐसे अनजान चेहरों का अपना
एक व्यापक संसार हमारे
साथ जीता और मरता है
और,
एक बार की यह मुलाकात
यादगार बनी रहती है
जानते हुए यह की
अब उनसे मिलना कभी नहीं होगा
शायद कभी भी नहीं...."
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