Thursday, December 20, 2007

अदरवायिज़....

अदरवायिज़....
"एक पल का यह
ठहराव
कितना अप्रत्याशित रहा
सोचता हूँ कभी-कभी ,
तुम्हारे सन्दर्भ मे
मेरी स्वत: निर्मित होती धारणाऐ
वास्तव मे
कितनी सही थी,
यह यो ठीक-ठीक
तुम ही बता सकती हो
परन्तु,
तुम्हारी उन्मुक्तता में निहित
शिष्टता मेरे पूर्वाग्रहों को
तोड़ती रही पल-प्रतिपल,
कभी बिना लिप्त हुए
किसी का विश्लेषण करना
रोचक प्रतीत होता है ,
आज भी वह बहस
मेरी स्मर्तियों मे जीवित हैं
जब तुम्हें अपने तर्को के द्वारा ,
मुझे सीमित विश्वास का
व्यक्ति ठहराया था
तुम्हारी विजय पर
सहमति के स्वरों के बीच
तुम्हरा सरलता से
कहना कि-
प्लीज़ अदरवायिज़ मत लेना... !!
मुझे याद आता है
कभी-कभी अकेले में
साथ ही फ़ैल जाती है
चेहरे पर एक अबोध मुस्कान
अपनी सोच
और तुम्हारी अभिव्यक्ति के बारे मे...."

डॉ अजीत

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