Sunday, October 31, 2010

महफूज़

उसका वजूद किस्से कहानियों मे रह गया

दावा समन्दर का था पर दरिया मे बह गया

फिकरे चंद लोगो ने कसे थे उसकी मजबूरियों पर

मगर खफा हो कर वो सबको बेवफा कह गया

इतने करीब से उसको जानता हूं मै

वो अब नही आएगा भले ही आने को कह गया

इसे रात की बेबसी कहूं तो तोहमत लगेगी

चांद निकलते ही आधा रह गया

तवज्जो उसी को मिलती है इस दूनिया में

लबो पे मुस्कान सजाकर जो दिल के जख्मों को सह गया

दोस्त हौसला बांट न सके अपने किरदारो का

सबके हाथों मे बस दिखाने को आईना रह गया...।

डा.अजीत

Thursday, October 28, 2010

रात

रात इतनी बेबस पहले न थी

दिन इतने चिढे हुए

मैने नही देखे कभी

दुपहरी अवसाद बाट रही है

मौसम ने करवट बदली

और मन का तन से रिश्ता टूट गया

दिल दिमाग पर हावी हो गया

सर्दी आने वाली है

और मन पर जमी बर्फ पिघंलने लगी है

ज़ज्बात के अहसास से रिसता

अपनेपन का लहू

एक तहरीर लिख रहा है

जमाने की बेरुखी पर

और मै उसके लिए

गवाह तलाश रहा हूं

जिससे दावा किया

सके अपनी बर्बादी के

उन हिस्सो का जिसके लिए

मै रोज़ाना जीया

और रोज़ मरा हूं...।

डा.अजीत

Tuesday, October 5, 2010

दाखिल खारिज़

मुझे ठीक से याद

नही है वो वक्त

जब मै इतनी बुरी तरह

से खारिज़ नही था

अपनें-परायों के बीच

अच्छी यादें तो बनी

रहनी चाहिए थी

लेकिन बात,हर बात और बेबात

पर जिस तरह से

मेरे खारिज़ होने का दौर है

ऐसे मे अपना होना

भी याद करना पडता है

समर्थन तलाशते

शब्द अब खुद बखुद

तंज बन जाते हैं

जिस पर अक्सर सभी

को रंज़ होता है

मै हैरान हूं अपने

वजूद के एक जहीन

गाली बन जाने पर

अहसास के मर जाने पर

उम्मीदों को जिन्दा रखना

ख्वाबों की दस्तक

को लौटा देना

अपने बुरे वक्त की दुहाई देकर

इस उम्मीद के साथ

कि एक दिन वक्त बदलेगा

वक्त का बदलना

दरअसल एक सदमा है

जिसके अक्स मे

मेरा वजूद अपने खारिज़ होने

ही वजह तलाशता है

रोज़ाना

ठीक वैसे

जैसे बैनामे के बाद

दाखिलखारिज़ का होना

जरुरी होता है

किसी भी

खरीददार के लिए....।

डा.अजीत

Monday, October 4, 2010

आशा

मिलते रहेंगे

यह कह कर बिछडना

थोडा मुश्किल

होता है

उम्मीद को बांधना

उस बेरंग डोर से

जिसका एक-एक धागा

मिलकर जुदा रहता है

न फिर कोई मिलता है

और न मिलने का

मलाल करता है

औपचारिक शब्दों

को शब्दकोश मे

जगह देने वाले को

जी भर कर कोसा जा

सकता है

फोन पर अक्सर

काम आतें है

ऐसे बौनें शब्द

जिसमें भावुक वादों

की कडवी गंध

आती रहती है और

मन बावरा फिर से

आस मे धुनी रमा

लेता है मिलनें की...

पुरानी गली के मुहाने

पर ऐसे फक्कडो

का मेला लगता है साल में

एक बार जब

याद आतें है

पुराने लोग

पुरानी शराब

और पुराने पत्र

दूनिया मशगूल है

अब मिलने-मिलाने

की फिक्र करने वाले को

निठल्ला समझा जा सकता है

या फिर ऐसे लोगो को

समझने वाले

ही कम बचें हैं

उम्मीद करो

और खो जाओं दूनिया के मेले मे

यही सबसे बडा सबक

है परिपक्व होने का

हो सके तो याद कर

लेना...।

डा.अजीत

Friday, October 1, 2010

तलाश

ऐसे लोगो की तलाश

के लिए मुझे

संविदा पर रखा गया है

जो असफल हो...

जीवन मे कुछ बडा करना चाहते

पर न कर पाए हो

वाचाल तो नही

वाकपटू भी हो तो ताकि

अपनी असफलताओं को

वक्त आने पर जस्टीफाई

कर सके और सीना तना रहे

स्वाभिमान से

दूनियादारी से कुछ

अलग होने के भाव के साथ

ऐसे लोग

जो विशेषण और उपमाओं

के अभिलाषी न हो

मतलब इन सब से उपर उठ चूकें हो

वादाखिलाफी को

मजबूरी मे बदलने मे माहिर

ऐसी कला का होना बेहद जरुरी है

और वक्त आने पर

अपने आप को साफ बचाते हुए

बिना महान बने

नो मेंस लैड के नागरिक

बनते हुए आपके चुनाव को

चुनौति दे सकें

जमानत जब्त होने की सीमा तक

फिर भी कोई मलाल न हो

और यह कहे फख्र के साथ

दरअसल तुम समझते नही हो

बात ऐसी नही है

इसका प्रयोग आना बेहद

जरुरी है

ऐसे लोगो को तलाशता

हुआ मै आ पहूंचा हूं

अपने घर से बहुत दूर

इतना दूर कि अब शायद ही

किसी पारिवारिक उत्सव मे शामिल हो सकूं

मेरी भटकन प्रतीक है

उन असफल लोगो की

खोज की जिन्होने

अपने आप को बर्बाद किया

ऐसा दूनिया कहती है

वो कमबख्त तो कुछ कहते ही नही

बस मेरे सवालों पर

मेरे असामान्य होने का चस्पा लगा कर

अपने धुन मे बिछड जाते है

मेरी संविदा भी

अधूरी रहेगी शायद

मेरी तरह...फिर भी

तलाश जारी है...

आपको कोई मिले तो

मेरा पता देना जरुर...।

डा.अजीत

आमद

शहर मे आना

आकर खो जाना

मर जाना सपनों का

किस्तों मे किस्से

खुदकुशी के

महफूज़ अहसास

खलिश का होना

और मिट जाना

किसी और के साथ

पीछे मुडकर देखना

आदत है मगर

दिखता नही वो सब

मंजर खौफनाक बनते गये

रिश्तें खोखले बांस

मजबूर होना किसी के

हिस्से का आधा गम है

लेकिन आधा-अधूरे

ख्वाबों की दस्तक

परछाई बन

डराती है आधी रात को

सुनसान शहर मे सहमे हुए लोग

और मेरा गली का कुत्ता

हांफता हुआ भौंकता है

खुद पर ही

शक कर के

लेकिन अभी उसने

नही सिखा दुम हिलाना

आवारा होने की बडी निशानी

गांव से कस्बे

कस्बे से शहर

और अब शहर से सपनो के महानगर

अपनी लाश ढोते हुए कन्धे

बेजान होकर

मायूस मुस्कान के साथ

दूर खडे लोगो को

हौसला बांट रहे थे ठीक

उस वक्त

जब उसका वक्त खत्म हुआ

आहिस्ता-आहिस्ता...।

डा.अजीत