अपने बेहद करीबी
को दूर देखने और
दूर को करीब महसूस
करने के लिए
चश्में की कभी जरुरत होगी
ये सोचा न था
नंगी आंखों से ग्रहण
देखने की आदत में
इंसान की फितरत
नही देख पाने का
मलाल होता है
कभी-कभी शाम को
वक्त का मिज़ाज
एक नसीहत बन कर
जब भी उभरता है तो
कुछ सवाल बिना जवाब
के दफन हो जातें हैं
मुस्कानों मे छिपी
जर्द खामोशी अपनी
बेबसी पर सिसकती है
उम्र का तकाज़ा
तज़रबे की कुछ पन्ने स्याह
करके आगे बढ जाता है
रिश्तों की उधेडबुन मे
उलझा मन बेबस होकर
यह कहता है दिल को समझाने के लिए
चश्में का नंबर
बदल गया है शायद...।
2 comments:
चश्मे के नंबर के सुन्दर व्यंजनात्मक प्रयोग युक्त भावपूर्ण कविता के लिए बहुत -बहुत बधाई।
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
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