कुछ
दोस्तों को हम
घसीटते
हुए शराबबाजी
की
किस्सागोई तक ले आएं
अक्सर
शराबी
दोस्तों
के
सदन में उनका ही प्रश्नकाल
चलता
है
जबकि
हमारे ऐसे कामयाब दोस्त
ठीक
उसी वक्त
बना
रहे होते है योजनाएं
जा
रहे होतें है मन्दिर सपरिवार
अपनी
उपलब्धियों के आंतक से
मजबूर
कर रहे होते है
असहमति
के स्वरों को
बलात
सहमति में बदलनें के लिए
मिलनें
पर अजनबी लहज़े
में
बतियाना अब अचरज़ की बात नही
हंसी
आती है उन लोगो की सलाह पर
जो
कहते है दूनिया गोल है
वक्त
बदलेगा
अहसास
कचोटेगा
कुछ
खोने का
न
वक्त कभी बदलता है
और
न अहसास कचोटता है
दूनिया
की दुकानदारी में माहिर दोस्तों
अब
तुम्हारी कलाकारी को सलाम करता हूँ
स्वीकार
करता हूँ
खुद
का ‘झक्की’ होना
और
अव्यवहारिक होना भी
न
तुम बदलें
न
हम
शायद
यह उस अंत की शुरुवात है
जो
नियति के हाथों बरसों पहले
लिख
दी गई थी
हमारे
माथे पर...।
डॉ.अजीत
3 comments:
नियति के हाथों या अपने ही हाथों ...
bahut achchha likha
bhai kavita men nirasha ka swar dikh raha hai. kavita bahut acchi hai.
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