Monday, December 16, 2013

यकीन

मेरे अपराधबोध में तुम्हारी सहमतियां भी शामिल है
मेरे संकोच में तुम्हारे आग्रह भी शामिल है
मेरे उत्साह मे तुम्हारा मौन भी शामिल है
मेरे अवसाद में तुम्हारी उपेक्षा भी शामिल है
मेरे अपेक्षाओं के जंगल में तुम्हारी उपस्थिति भी शामिल है
मेरे खो जाने मे तुम्हारी फिक्र भी शामिल है
और 
मेरे प्रपंचों में तुमसे मिलने का षडयंत्र सबसे बडा है
मेरे भय में तुम्हारे बदल जाने का भय सबसे बडा है
मेरे विकल्पों में तुम्हारा कोई विकल्प ही नही है
मेरे संकल्पों में तुम्हारा संकल्प ही नही है
फिर भी
हम साथ-साथ है
बे-बात है
दिन -रात है
न कुछ व्यक्त है
न कुछ अव्यक्त है
फिर क्या संयुक्त है
शायद हमारा होना
जो फिलहाल बेवजह नही है
इसकी वजह की पडताल कभी मत करना
क्योंकि
रात के बाद
दिन का आना तय है
और दिन में बाद रात आयेगी
यह तय नही हुआ है अभी

दिन के मेले में हमारा खो जाना
सूरज के जितना शाश्वत है
और मेरी गर्भकाल से लडाई
शाश्वत के खिलाफ ही चल रही है
मेरी लडाई मे तुम हार जाओं
यह हार मेरी हार से बडी हार मे शामिल होगी  
तुम्हें यह बडप्पन मै कभी नही मिलने दूंगा
ये वादा है मेरा
या जिद भी समझ सकती हो
यकीन करो न करो
तुम्हारी मर्जी ..।

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर वाह !

रश्मि प्रभा... said...

वह 'मैं' जो वजूद होता है
गर्भकाल से जो करता है खुद को परिष्कृत
उसे अपने मिलने का भी भय होता है
अपने खो जाने का भी
वह न स्वयं की ख़ामोशी सह पाता है
नहीं सह पाता प्रलाप
संधि बिंदु पर विमुखता का डर
शाश्वत सत्य हो या असत्य
रहता तो है ही …