ये जो तुम्हारा गूंथा हुआ जूड़ा है
मैं इसमें दूरबीन की तरह झांककर देखना चाहता हूँ
जिसके लिए कर लूंगा
मैं अपनी एक आँख बंद
किसी कुशल खगोल विज्ञानी की तरह
मैं देखना चाहता
हूँ कि
ये दुनिया कितनी
दिमाग के भरोसे चल रही है
और कितनी दिल के
ये जो तुम धोकर और खोलकर सुखा रही हो अपने बाल
मैं इन्हें हवा में उड़ता हुआ देखना चाहता हूँ एक बार
ताकि पता कर सकूं हवा दक्खिनी है या पहाड़ा
परवा और पछुवा जानने के काफी है तुम्हारी लटें
तुम्हारी गर्दन पर प्रकाशित है
उस समंदरी टापू का नक्शा
जहां ठुकराए हुए लोग जी सकते है सम्मान के साथ
उनसे कोई नही करता
वहां सवाल
उसकी प्रतिलिपि मैं ले जाना चाहता हूँ अपने माथे पर
तुम्हारी अनुमति के बाद
तुम्हारे हाथों में सुना है बड़ी बरकत है
आज तक कभी कम नही पड़ा खाना रसोई में
मैं अपनी कलम एक बार तुम्हारे हाथों में देना चाहता हूँ
ताकि क्षमा और प्रशंसा के लिए
कभी कम न पड़े मेरे पास शब्द
ये जो तुम्हारी पलकें है
इनके बाल गिनना चाहता हूँ एक बार
ताकि मैं अपनी बोझ उठाने की क्षमता को परख सकूं
तरलतम परिस्थितियों में
मेरे इस किस्म के छोटे छोटे स्वार्थ और भी है
मगर उनका जिक्र नही करूंगा आज
आज केवल पूछूंगा इतना
क्या तुम्हें इतना भरोसा है खुद पर कि
मैत्री को बचा ले जाओगी
प्रेम के मायावी प्रेत से?
तुम्हें हो न हो मगर मुझे भरोसा है
इसलिए मैं कहता हूँ
ये जो तुम्हारी आँखें है
इनमें साफ-साफ़ दिखता है
भूत और भविष्य एक साथ
मैं दोनों के बीच में वर्तमान
टिकाना चाहता हूँ थोड़ी देर
बशर्ते तुम अनिच्छा से आँखें न मूँद लो.
© डॉ. अजित
2 comments:
बढ़िया।
कमाल कविता! निश्चित रूप से कमाल.
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