Monday, December 3, 2018

दिसम्बर

सड़क पार करने के लिए
जब करता हूँ इंतजार
ठीक उस वक्त लगता है
पार करना
जरूरत भले ही रही हो
फायदेमंद कभी नही रहा।
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भीड़ गुजरती है आंखों के सामने से
अनजानी भीड़
मैं सोचने लगता हूँ
उनके परिजनों के बारें में
इतंजार के बारे में सोचना
सलीके से
भीड़ ने सिखाया मुझे
**
मेरी बातों में रस सूख गया है
मगर उनकी डंठल अभी हरी है
उस पर तुम सुखा देती हो
अपनी मुस्कान
मेरे बातों का पुनर्जन्म
तुम्हारी नमी के भरोसे है।
**
इनदिनों नींद कम आती है
मगर जब आती है
तब सपने में दिखते है पुरखे
बनकर भूत-प्रेत
डराना मनुष्य मरकर भी नही छोड़ता
प्यार करना कैसे भूल सकता है
जीते जी भला?

©डॉ. अजित

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

हमेशा की तरह सुन्दर