जब
किसी दोस्त को कहता हूँ
माँ
को कहना प्रणाम
तब
आदर सबसे निर्मल रूप में होता है
मेरे
अंदर
जब
कहता हूँ बच्चों को प्यार देना
वैसे
प्यार नही मिलता मेरे अंदर बाद में
जब
पूछता हूँ पिता के स्वास्थ्य के बारे में
तो
याद आ जाते है खुद के पिता
जिनसे
सही वक्त पर नही पूछा
उनका
असली मर्ज
जब
पूछता हूँ बहन के यहाँ कब गए थे
तब
मैं मिटाता हूँ खुद का अपराधबोध
दुनियावी
बातों से उकताकर
मैं
पूछ लेता हूँ बुआ-फूफा, चाची-ताई
रिश्तें-नातें
की कुशल क्षेम
और
अंत में पूछ लेता हूँ
यहाँ
तक पडौसी के कुत्ते के बारें में भी
क्या
वो अब भी जा जाता है तुम्हारे द्वारे?
बस
एक बात नही पूछ पाता
अपने
भाई और दोस्त से कभी
क्या
तुम्हें कुछ पैसों की जरूरत है?
जिस
दिन पूछ पाऊँगा
ये
बात अधिकार के साथ
उस
दिन मनुष्यता के सबसे निकट
पहुँच
जाऊंगा मैं
फ़िलहाल,
हाल-चाल,प्रणाम
ये औपचारिक बातें भले ही लगे
मगर
ये सब साधन है
वो
अधिकार अर्जित करने के
जिसके
भरोसे मैं
पूछ
सकूंगा वो हर बात
जिससे
बचता आया हूँ आजतक.
©
डॉ. अजित
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सुन्दर
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