यूँ ही..
"कभी अचानक
यूँ ही मन में
बेतुका कौतुहल पैदा होता है
बात कुछ और हो
और अनायास सामने खडे हो जाते है
कुछ ऐसे अनजान चेहरे
जिन्हें हमने केवल देखा मात्र है
कही भीड़ में
वह भी क्षण भर के लिए,
बगैर किसी परिचय के
उनको जानने की हमारी जिज्ञासा
कभी तो इतनी प्रबल होती है
की
हम काल्पनिक संवाद
स्थापित करते है खुद से
संवाद में आत्मीयता के साथ होता है
अधिकार
बिना किसी बंधन के
कभी उनका चेहरा
ठीक से याद करने की कोशिश होती है
तो कभी उनसे जुड़ी
किसी वस्तु को देखते है हम अपनेपन से
ऐसा क्यों होता है
शायद ही किसी विज्ञान में
इसका कोई तार्किक उत्तर मौजूद हो
फिर कभी मुलाकात हो
इसकी शून्य सम्भावना के बावजूद भी,
हम स्वयं को उस 'आस'से
वंचित नहीं करना चाहते है
ऐसे अनजान चेहरों का अपना
एक व्यापक संसार हमारे
साथ जीता और मरता है
और,
एक बार की यह मुलाकात
यादगार बनी रहती है
जानते हुए यह की
अब उनसे मिलना कभी नहीं होगा
शायद कभी भी नहीं...."
3 comments:
ajitji, aap to humse har bar ki tarah is bar bhi ek kadam aage nikle..hum abhi blog-sagar mein gota lagane ki soch hi rahe the or aap ko antarjal ke manjhe huye gotakhor ki taRAh us par nikle.. kher lagatar likhte rahiye.. hum apne sath kuch aur kavita premiyo ko apki naveen rachnayein padhate rahenge.. shesh fir shirshak bhi bda samsamyik, prasangik aur sargarbhit lga.. apki rachnadharmita ko sadhuvad.... shesh fir.. kabir
अजीत जी
बहूत ही सुंदर शब्द और भाव चुने हैं आप ने अपनी इस कविता में सच कहूँ आनंद आ गया.
"अनजान चेहरे जिन्हें हमने केवल देखा मात्र हैकही भीड़ में "
आप की उक्त पंक्ति पर अपना एक शेर सुनना चाहूँगा आप को :
"वो जो शामिल था भीड़ में पहले
दिल मिला तो लगा जुदा सबसे"
नीरज
aap ne phele se jyada goodh hindi paryog ki hai. magar phir bhi yeh manmohak hai .and i like it. thankyou
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