Thursday, December 20, 2007

मौन...

मौन...
मौन और सन्नाटे के बीच ,
ख़ुद से
संवाद स्थापित करना
किसी भी चिन्तनशील
व्यक्ति के लिए प्रिय-अप्रिय अनुभव
हो सकता है
परन्तु
यह मुझे अहसास होता है
कि मौन में निकले वक्तव्य
वास्तव में
एक श्रंखला बना कर
प्रश्नबोधि वातावरण बना देते हैं
स्वत:
और सन्नाटा तो मानो
प्रतीक्षारत रहता हैं
ऐसी मनस्थिति में
एक अजीब सा राग लिए,
जिसको परिभाषित
नही किया जा सकता,
हाँ ! चुभन से तीव्रता का
अंदाजा जरुर लगा सकते है
कभी-कभी
वैचारिक द्वंद में सर्जन-विखंडन
के सेतु बन जाते हैं
जिनके आर-पार बहती है
आशा कि सरिता
हम
निष्कर्ष पर पहुँचना नही चाहते,
बल्कि नेपथ्य में
धकलेना चाहते हैं
सायास
उन सभी संभावित प्रश्नों को,
जिनके कोई प्रमाणिक जवाब
शायद हमारे पास नही होता..
साहस/उत्साह/भ्रम
और यथार्थ
कि राहों पर
चलकर पहुँच जाते है
उस दिशा में
जहाँ विचार और शून्यता को
जोड़ने का यत्न चल
रहा होता है
मौन और सन्नाटे
की यह सांझी तस्वीर
कभी पीड़ित करती है
तो कभी अवसर देती है
आत्ममूल्यांकन का...
परन्तु इनकी जुगलबंदी
से उपजा संगीत
किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को
प्रेरित नही करता
कुछ सर्जन के लिए
ऐसा मैं सोचता हूँ अक्सर....."
डॉ अजीत

2 comments:

गौरव सोलंकी said...

आप को पढ़ के पता चलता है कि आप मनोविज्ञान पढ़ते पढ़ाते हैं।
लिखते रहिए। अच्छी लगी कविता...

शैलेश भारतवासी said...

अतुल जी,

आपकी कविता में कथ्य बहुत प्रभावी तरीके से संप्रेषित हो रहा है। आप हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग क्यों नहीं लेते? एक बार देखिए, शायद आपको अच्छा लगे।