तवज़्जो का तालिब दिल निकला
तकसीम होकर भी
हासिल सिफर निकला
वो ठहर कर प्यासा रह गया
मुनासिब दिल के वतन नही निकला
मुजरिम भी वो मुंसिफ भी वो
गवाह सच बोलकर बच निकला
दोस्त यारी के किस्सो मे रह गये
पुरानी डायरी से आज उनका खत निकला
हाजिरजवाबी दगा दे गई
वक्त इतना संगदिल निकला
तन्हा खडा था जो भीड मे
वो ही बडा गाफिल निकला
उम्मीद-ए-वफा जुर्म से कम नही इस दौर मे
अदावत जिससे थी वो ही दोस्त निकला
चलो भीड मे फिर से खो जाए
मिलने का यही सबब निकला...।
डा.अजीत
2 comments:
बहुत खूब!
आपकी पुरानी पोस्ट्स पढ़ कर बहुत चमत्कृत हुआ हूँ...आप में कवि बनने की अपार संभावनाएं हैं...बधाई
नीरज
Post a Comment