रात इतनी बेबस पहले न थी
दिन इतने चिढे हुए
मैने नही देखे कभी
दुपहरी अवसाद बाट रही है
मौसम ने करवट बदली
और मन का तन से रिश्ता टूट गया
दिल दिमाग पर हावी हो गया
सर्दी आने वाली है
और मन पर जमी बर्फ पिघंलने लगी है
ज़ज्बात के अहसास से रिसता
अपनेपन का लहू
एक तहरीर लिख रहा है
जमाने की बेरुखी पर
और मै उसके लिए
गवाह तलाश रहा हूं
जिससे दावा किया
सके अपनी बर्बादी के
उन हिस्सो का जिसके लिए
मै रोज़ाना जीया
और रोज़ मरा हूं...।
डा.अजीत
2 comments:
बेहतरीन रचना !
बहुत लाजवाब और उम्दा लिखा है......गहरी बात आसानी से कह दी आपने
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