Wednesday, April 30, 2014

अनपढ़

यादों के इनबॉक्स में
बाकि रह गई खताएं
कुछ कमजोर लम्हों
की अर्जियां जेब में पड़ी धुल गई
कुछ हसीन लम्हों की राख
वक्त की आंधी में उड़ गई
देह और मन के बीच झूलते
रिश्तों के तार पर
शिकायतों का एक मफलर टंगा है
जो सर्द हवा के इन्तजार में
सूखना नही चाहता
जिस्मों की पैमाइश
दिल के नक्शों से नही होती
दिल हांफता दौड़ रहा है
रात दिन
मन दिल दिमाग
देह को छोड़ बगावत कर बैठे है
यह जो उलझी हुई परछाई है
यह मेरे देह की नही है
परछाई की आँख से
देह को देख रहा हूँ
उसके कदमों में लडखडाहट है
ऐसे मुश्किल वक्त में
खुद को किस्तों में बटोरता
तुम्हारे दर पर आया था एकदिन
मगर
बाहर तख्ती टंगी थी
तुम्हारे नाम की
वो नाम मेरे अक्षर ज्ञान से अलग था
इसलिए पढ़ न सका
आज के बाद
तुम मुझे अनपढ़ समझ सकती हो
समझने से परे भी एक बात समझने की है
माफ़ करना तुम्हे मुझसे सीखना था
और माफी माँगना मुझे तुमसे
जो हम नही सीख पाएं
इसलिए रिश्तों के मदरसे से
दोनों अनपढ़ निकल रहे है।


2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

क्या बात है उम्दा :)

कविता रावत said...

कहीं न कहीं अनपढ और पढ़े लिखे एक ही पंक्ति खडे नजर आते हैं