Wednesday, August 10, 2016

पंच प्यारा

वो पांच स्त्रियों का
अकेला प्रिय पुरुष था
पांचों उसे कर रही थी
एक साथ प्रेम
बिना किसी पारस्परिक बैर भाव के

वो एक कुशल सारथी के जैसा था
सबको छोड़कर आता था
उनके सपनों की मंजिल तक

एकाधिकार वहाँ अप्रासंगिक था
उस पर पांचों का सामूहिक अधिकार था
मगर नही टकराता था
किसी का अधिकार दुसरे के अधिकार से

वो पंच प्यारा था
जिसे उम्मीद ने गढ़ा था
बिना शर्त के प्रेम के लिए

उसे देखा जा सकता था प्रायः
दिन और रात के संधिकाल पर
सूरज और चांद के खत बदलते हुए
वो अंगड़ाई की एक मुस्कान के जैसा था
जो तोड़ता था आसक्ति की तन्द्रा
उसको लेकर ठीक वैसी थी अमूर्तता
जैसी होती है विचारों की जम्हाई के वक्त

उसे महसूस किया जा सकता था
झरने के वेग की तरह
वो नदी की गहराई में अकेला पड़ा पत्थर था
जिसे समंदर तलक जाने की कोई चाह न थी

पांच तारों की युक्ति से बना वो पंच ऋषि था
जिससे रश्क होता था सप्त ऋषि तारामंडल को
पूर्वोत्तर के लोक नृत्य की तरह
वो रहता था उनका पांचो के मध्य
कभी धरती तो कभी आसमान बनकर

भले ही उन पांचो स्त्रियों की आपस में घनिष्ठता न थी
मगर वो अकेला था उन पांचो का घनिष्ठ

उसका होना सह अस्तित्व के दर्शन का मानवीयकरण होना था

किसी को नही थी आपस में कोई ईर्ष्या
उसको लेकर थी सबके मन में अपने अपने किस्म की दिव्य आश्वस्तियां

वो अकेला मुसाफिर था
जिसकी जेब में थे पांच अलग अलग पते
मगर न उसे कहीं पहुँचना था
न कहीं अटकना था

वो भटक रहा था अकेला इस ग्रह पर
पांच आत्मीय शुभकामनाओं के भरोसे।

©डॉ. अजित

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