Tuesday, August 16, 2016

बेवजह

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ कि महीना तीस का है या इक्कतीस का

सोमवार के दिन देर से उठो हड़बड़ा कर और कहो कल सन्डे के चक्कर में लेट हो गई

तुम्हें देखना चाहता हूँ अनुमान के कौशल से
पैर के पंजे से बेड की नीचे से स्लीपर निकालते हुए
अपने अनुमान को परखती तुम्हारी मिचती खुलती आँखें सृष्टि की सबसे दिव्य घटना होती है

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तिरछी लगी रहे बिंदी और तुम्हें इसका पता भी न हो

देखना चाहता हूँ तुम्हें रसोई में लाइटर खोजते हुए जबकि वो पड़ा हो ठीक तुम्हारे सामने

देखना चाहता हूँ खुद के पर्स की खराब चैन को आहिस्ता से बंद करते हुए
ये सावधानी तुम्हारे निर्जीव प्रेम का सबसे जीवंत उदाहरण है

देखना चाहता हूँ दूध की मलाई को फूंक से हटाते हुए अचानक आँख के सामने आई लट को कान की अलगनी पर टांगते हुए
तुम्हारा कान भटके हुए मुसाफिर का अरण्य हो जैसे

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ मुझ से मिलकर रोज़मर्रा की जरूरी बातें
और पूछो बेहद मामूली से मासूम सवाल

मसलन

मैं जिंदगी से क्या चाहता हूँ?
बुरा नही लगता उपलब्धिशून्य जीवन?

मेरे हंसने पर देखना चाहता हूँ तुम्हारी खीझ

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ मैचिंग के रंग और जीने लगो अपने ही फ़्यूजन में

तुम्हें अस्त व्यस्त देखना ठीक वैसा है
जैसे धरती को बरसों बरस पीछे जाकर देखना
जब बिना नियोजन के भी
बची हुई थी खूबसूरती

तुम्हें यूं बेतरतीब देखना
उस दुनिया को देखना है
जहां अभी भी बची हुई है
लापरवाही बेहद ख़ूबसूरत अंदाज़ में

जिसके भरोसे जीया जा सकता है इस मतलबी दुनिया में
मुद्दत तक बेवजह पूरी जिंदादिली के साथ।

©डॉ.अजित