तुम्हारी गर्दन पर
एक कम्पास रखा है
जिसे देखकर नही
सूंघकर होता है
दिशाबोध
तुम्हारी पलकों पर
कुछ रतजगे सुस्ता रहें है
जिनकी जम्हाई में हिसाब है
तुम्हारी करवटों का
तुम्हारे माथे पर लिखा है
एक पता
जिसकी लिपि को वर्गीकृत किया गया है
संरक्षण की श्रेणी में
तुम्हारे बालों में अटक गए
कुछ आवारा ख्याल के पुरजे
जिन्हें यादों की कंघी से निकालना असम्भव है
तुम्हारी पीठ पर
लिखे है अग्निहोत्र मंत्र
दीक्षित हो रहें है जिनसे
आश्रम से बहिष्कृत सन्यासी
तुम्हारी नाभि पर
प्रकाशित है आग्रह
धरती के बोझ को धारण करने का
और वलयों में कक्षा बन गई है
धरती के उपग्रहों की
तुम्हारे तलवों पर
बना है श्री यंत्र
बिना प्राण प्रतिष्ठा के भी
वो सदा बना रहेगा
चमत्कारिक
तुम्हारी हथेली पर
हृदय और मस्तिष्क रेखा के मध्य
आड़ा तिरछा फंस गया है मेरा नाम
भाग्य रेखा जिस पर मुस्कुराती है रोज़
तुम्हारे हथेलियों की नमी
अब ऊर्जा का अज्ञात स्रोत है
तुम्हारे कान
झुक गए अफवाहों और कयासों के बोझ से
कान की तलहटी में पड़े झूले
भूल गए है अपनी ध्वनियां
इसलिए भी अब दिगभ्रमित रहेगा बसन्त
मैं केवल तुम्हें देख रहा हूँ
जितना देख पा रहा हूँ
ये विवरण उसका दशमांश भी नही
जो नही देख पा रहा हूँ
उसके लिए कोई कौतुहल नही
मेरे पास
क्योंकि
तुम्हें यूं देखना एक आश्वस्ति है
कि तुम इस जन्म में
अभी खोई नही हुई मुझसे
इसलिए स्मृतियों को धोखा देकर
फ़िलहाल देख रहा हूँ तुम्हें
अपलक।
© डॉ. अजित
एक कम्पास रखा है
जिसे देखकर नही
सूंघकर होता है
दिशाबोध
तुम्हारी पलकों पर
कुछ रतजगे सुस्ता रहें है
जिनकी जम्हाई में हिसाब है
तुम्हारी करवटों का
तुम्हारे माथे पर लिखा है
एक पता
जिसकी लिपि को वर्गीकृत किया गया है
संरक्षण की श्रेणी में
तुम्हारे बालों में अटक गए
कुछ आवारा ख्याल के पुरजे
जिन्हें यादों की कंघी से निकालना असम्भव है
तुम्हारी पीठ पर
लिखे है अग्निहोत्र मंत्र
दीक्षित हो रहें है जिनसे
आश्रम से बहिष्कृत सन्यासी
तुम्हारी नाभि पर
प्रकाशित है आग्रह
धरती के बोझ को धारण करने का
और वलयों में कक्षा बन गई है
धरती के उपग्रहों की
तुम्हारे तलवों पर
बना है श्री यंत्र
बिना प्राण प्रतिष्ठा के भी
वो सदा बना रहेगा
चमत्कारिक
तुम्हारी हथेली पर
हृदय और मस्तिष्क रेखा के मध्य
आड़ा तिरछा फंस गया है मेरा नाम
भाग्य रेखा जिस पर मुस्कुराती है रोज़
तुम्हारे हथेलियों की नमी
अब ऊर्जा का अज्ञात स्रोत है
तुम्हारे कान
झुक गए अफवाहों और कयासों के बोझ से
कान की तलहटी में पड़े झूले
भूल गए है अपनी ध्वनियां
इसलिए भी अब दिगभ्रमित रहेगा बसन्त
मैं केवल तुम्हें देख रहा हूँ
जितना देख पा रहा हूँ
ये विवरण उसका दशमांश भी नही
जो नही देख पा रहा हूँ
उसके लिए कोई कौतुहल नही
मेरे पास
क्योंकि
तुम्हें यूं देखना एक आश्वस्ति है
कि तुम इस जन्म में
अभी खोई नही हुई मुझसे
इसलिए स्मृतियों को धोखा देकर
फ़िलहाल देख रहा हूँ तुम्हें
अपलक।
© डॉ. अजित
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सुन्दर ।
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