लिखे
हुए में आप
अपने
मतलब की चीजें निकाल लेते है
और
कर देते है तारीफ़
ऐसे
में जो बचा रहा जाता है ऐसा
जो
आपके मतलब का नही था
मगर
मेरे जरिए जो हुआ प्रकट
वो
घेरता है मुझे एकांत में
करता है प्रश्न पर प्रश्न
मैं
थक जाता हूँ देता हुआ जवाब
मगर
वो नही सुनता मेरी कोई सफाई
और कोसता हुआ मुझे
हो
जाता है नेपथ्य में विलीन
जितना
लिखता हूँ मैं
वो
सब उन्हीं उपेक्षित शब्दों और भावों के
अपराध
से मुक्ति होती है एक कोशिश
मगर
हर बार बच जाता है ऐसा कुछ
जिसे
नही मिलती आपकी तारीफ़
इसलिए
कभी खत्म नही होता
मेरे
लिखने का क्रम
आप
जिसे कहते है बहुत अच्छा
वो
मैं पढ़ नही पाता हूँ
क्योंकि
मैं
लगा रहता हूँ उनकी मनुहार में
जो
अच्छा था
मगर
खो गया अधिक अच्छे की भीड़ में
मेरी
प्रशंसा की तृष्णा इसलिए नही होती शांत
क्योंकि
कोई प्रशंसा नही आती मुझ तक अकेले.
©डॉ.
अजित
2 comments:
तृष्णा शांत होनी भी नहीं चाहिये। हो गयी तो फिर लिखा हुआ कैसे मिल पायेगा ?
बहुत सुन्दर
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