Sunday, December 24, 2017

प्रशंसा

लिखे हुए में आप
अपने मतलब की चीजें निकाल लेते है
और कर देते है तारीफ़

ऐसे में जो बचा रहा जाता है ऐसा
जो आपके मतलब का नही था
मगर मेरे जरिए जो हुआ प्रकट
वो घेरता है मुझे एकांत में
करता  है प्रश्न पर प्रश्न

मैं थक जाता हूँ देता हुआ जवाब
मगर वो नही सुनता मेरी कोई सफाई
और  कोसता हुआ मुझे
हो जाता है नेपथ्य में विलीन

जितना लिखता हूँ मैं
वो सब उन्हीं उपेक्षित शब्दों और भावों के
अपराध से मुक्ति होती है एक कोशिश
मगर हर बार बच जाता है ऐसा कुछ
जिसे नही मिलती आपकी तारीफ़
इसलिए कभी खत्म नही होता
मेरे लिखने का क्रम

आप जिसे कहते है बहुत अच्छा
वो मैं पढ़ नही पाता हूँ
क्योंकि
मैं लगा रहता हूँ उनकी मनुहार में
जो अच्छा था
मगर खो गया अधिक अच्छे की भीड़ में

मेरी प्रशंसा की तृष्णा इसलिए नही होती शांत
क्योंकि कोई प्रशंसा नही आती मुझ तक अकेले.

©डॉ. अजित 

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

तृष्णा शांत होनी भी नहीं चाहिये। हो गयी तो फिर लिखा हुआ कैसे मिल पायेगा ?

Onkar said...

बहुत सुन्दर