Wednesday, November 25, 2020

हाथ

 उसका हाथ देखकर

उसे थामने की इच्छा होती थी

हर बार


उसके हाथों को पकड़

किया जा सकता था 

दुनिया की हर दुविधा को पार 


उसके हाथों में

आश्वस्ति की गंध थी 

जिसे महसूस किया जा सकता था

अपने देह में किसी कस्तूरी मृग की तरह 


उसकी हथेली की प्रतिलिपि

आज भी सुरक्षित है मेरी 

हस्तरेखाओं के पास 


जब-जब मैंने थामा उसका हाथ 

बदल गया मेरे अनिष्ट का फलादेश 

मुश्किल वक्त में शिद्दत से आता था याद

उसके हाथ का वो गहरा स्पर्श 


जिसमें सन्देह की नमी नहीं थी 

अपनत्व की औषधि थी

जो करती थी मेरा नियमित उपचार।

©डॉ. अजित 




6 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

एक लम्बी खमोशी के बाद की सुन्दर अभिव्यक्ति

Sweta sinha said...

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ नवंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।

सादर
धन्यवाद।

Onkar said...

बहुत सुन्दर

अनीता सैनी said...

बहुत ही सुंदर।

सधु चन्द्र said...

एक अनुभवशील, उन्मादित कविता ।
बहुत-बहुत सुंदर।
सादर।

Nidhi Saxena said...

भली कविता