"नेह से नीर
तक का सफर
रोचक मगर
व्यथित डगर
अपेक्षा स्नेह की
मौन भाषा प्रेम की
समझे थे एक साथ हम
मैं संकोच में रहा
और तुम भी
तलाशती रही
अपने मूकप्रश्न
वो भी मेरी मौन आकृति में
जड़ता और गति की समझ समाप्त हो गई
तब जब साथ चले
एक नियत
समय पर
गति भी थी नियत
परन्तु,
मंजिले एकदम भिन्न
आभास भी न हुआ
कि
पदचाप की आहट भी
समानान्तर होती जा रही थी
और आज जब हम मिले है
इस अनपेक्षित अवसर पर
अब मुझे आभास हुआ है
कि
नेह से नीर तक के सफर में
तुम एक
धरातल पर
खड़ी निहारती रही हो
अबोधता के साथ
और मैं...
मैं क्या कहूँ
मुझे तो अहसास ही नही है
कि
तुमको इतनी दूरी
पर कैसे देखा पा रहा हूँ
शायद
तुम्हारा अपेक्षाबोध ही
मेरा अपराधबोध हैं..."
डॉ.अजीत
2 comments:
प्रिय डॉक्टर,
कविता दिल को छू गई. हां, इसे समझना एकदम आसान नहीं है क्योंकि आपने परोक्ष प्रतीकों का उपयोग किया है. जो कविता के साथ जूझ कर आनंद लेने का आदी है वह इस काव्य से काफी कुछ पा सकेगा.
"शायद
तुम्हारा अपेक्षाबोध ही
मेरा अपराधबोध हैं..."
बहुत सशक्त !!
-- शास्त्री
कविता और कविता के भाव दोनो बहुत सुन्दर !
नया साल मुबारक हो।
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