Thursday, June 19, 2014

सलामत

इस शहर के सारे दरख्त
अदालत में मुकरे हुए गवाह है

इस शहर की गलियाँ
भूलभूलैय्या है

इस शहर की हवा
बेहद हल्की है

इस शहर तक आते आते
नदियाँ रास्ता बदल लेती है

इस शहर में फूल
कलियों के एहसानमंद नही

इस शहर में पत्थर
वजूद से बड़े है

इस शहर में बुनियाद छोटी
ईमारत मगर ऊंची है

इस शहर में बादल अनमने
और बारिश उदास है

इस शहर में बच्चें समझदार
और बड़े लापरवाह है

ताज्जुब है तुम इस शहर में रहकर भी
मुहब्बत की बात करती हो
वफा, इबादत के खत लिखती हो

किसी को इल्म नही होगा
ये शहर तुम्हारी दुआओं पर जिंदा है


अपने गाँव की मुंडेर से
मै दुआ फूंकता हूँ
लोबान जलाकर
तुम सलामत रहो
ताकि ये शहर
सलामत रहे।

© डॉ. अजीत

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर रचना ।

संजय भास्‍कर said...

वाह...बहुत उम्दा,
कभी यहाँ भी पधारें :))