Wednesday, May 4, 2016

स्मृतिलोप

और एकदिन कवि पाता है
अपनी सारी कविताएं बनावटी और खोखली
जैसे मन की सतह पर छाया हुआ
एक भावनात्मक झाग
या फिर एकालाप के अधूरे राग
जिनकी बंदिशें उलझी हुई है आपस में
वो हंसता है खुद पर
उस हंसी को देख डर सकता है कोई भी
और एकदिन कवि भूल जाता है
अपनी सारी कविताएं
वो महज़ पाठ ही नही भूलता
वो भूल जाता है कविता का शिल्प नुक्ते और मात्राएं
जब वो सुनता है कोई बढ़िया कविता
सबसे पहले उसे खारिज करता है
फिर करता है स्वीकार
कवि का स्मृतिलोप अदैहिक घटना है
कवि जिस दिन भूल जाता है कविता
ठीक उसी दिन उसका जीवन लगने लगता है कविता
जिसका पाठ होता है
यत्र तत्र सर्वत्र
कवि की अनुपस्थिति में।

© डॉ.अजित

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