अहसासों की एक जुम्बिश
रोज़ शाम पीछा करती है
सफहों पर रक्खे कुछ लफ्ज़
हाशिये की बेरुखी से इल्तज़ा करते है
तुम्हारी पोशीदा हथेलियों के टापू पर
एक दरिया रोज़ मुझे बुलाता है
वो चाहता है मैं डूब भी जाऊं और खुदकुशी भी न हो
हवाओं ने तुम्हारी जुल्फों को पहरेदार बना दिया है
वो आँखों के काजल को आंसूओं से सूखता देखती है
बादलों ने मेरे खत जला दिए है
सूरज आजकल उनसे रोशनी उधार मांगकर ज़मी पर आता है
तुम थोड़ी मुतमईन थोड़ी गाफिल होकर
जब मुस्कुराती हो
कायनात तब अपने छज्जे से कुछ पंछी उड़ा देती है
आसमान की बालकनी में
एक गीला तौलिया टंगा है धूप उसकी तलाश में
मेरे घर की तलाशी लेती है
वहां महज तुम्हारे ख्यालों की महक मिलती है तुम नही
इस बात पर धूप मुझे ताना देती है
मुद्दत से मैं अंधेरो में जीता हूँ
खुद की धड़कनों को तुम्हारे ख्याल के तबस्सुम से सीता हूँ
अजब सी कशमकश है
मरासिम की एक वसीयत मेरे सिराहनें रखी है
और मैं शिफ़ा के नुस्खे तलाश रहा हूँ
चाँद तारों से तुम्हारी करवटों का हिसाब ले रहा हूँ
वो खबरी नही है फिर भी मुझे बताते है
तुम्हारे तकिए की बगावत के किस्से
और हंस पड़ते है
इनदिनों, तुम्हारा जिक्र मैं उन रास्तों से करता हूँ
जो अब कहीं नही जातें है
वो मुझे कोई मशविरा नही देते नसीहत भी नही
बस मेरे पैर को चूम लेते है
आख़िरी चिट्ठी मुझे तुम्हारी अंगड़ाई की मिली थी
जिस पर लिखा था
तुम याद आएं और मैं मुस्कुरा पड़ी
इन्ही तसल्लियों पर आजकल जिन्दा हूँ
जिन्दा हूँ मगर एक ख्वाब की तरह
तुम दूर हो उस हकीकत की तरह
जिसकी रौशनी में
हमारी पीठ एक दुसरे के सहारे टिकी है
उदासियों का उर्स है
मैं खताओं की कव्वालियां गा रहा हूँ
मेरे मुर्शिद ने मुझे सरे राह छोड़ा क्यों
मुरीद का तमन्नाओं से दिल तोड़ा क्यों
खता का इल्म वफ़ा के अदब से भारी है
जमीं के जिस हिस्सें में तुम नही
आजकल वहीं अपनी परदेदारी है।
©डॉ. अजित
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